उष्ण परीषह जय
ग्रीष्मकालीन सूर्य की किरणों से सूखकर पत्तों के गिर जाने से छायारहित वृक्षों से युक्त स्थान में जो उपवास आदि विविध तप करने में लीन हैं तथा दावाग्नि जनित उष्णता अति गर्म वायु और आतप के कारण शरीर में दाह उत्पन्न हुआ है, जो साधु उसके शमन के अनुभूत उपायों को जानता हुआ भी उसका विचार या चिंतवन तक नहीं करता और जिसका चित्त प्राणियों की पीड़ा दूर करने में लगा है उस साधु के चारित्र के रक्षण रूप उष्ण परीषह जय कहा गया है ।