आचार
अपनी शक्ति के अनुसार निर्मल किए गए सम्यग्दर्शनादि में जो यत्न किया जाता है उसे आचार कहते हैं । आचार के पाँच भेद हैं – दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार । समस्त परद्रव्यों से भिन्न यह निज शुद्धात्मा ही उपादेय है ऐसी रूचि रूप सम्यग्दर्शन है। उस सम्यग्दर्शन में जो आचरण अर्थात् उस रूप परिणमन वह निश्चय दर्शनाचार है अथवा आठ अंगों से युक्त सम्यग्दर्शन रूप आचरण करना व्यवहार दर्शनाचार है। निज शुद्धात्मा को स्वसंवेदन रूप भेद ज्ञान द्वारा मिथ्यात्व रागादि परभावों से भिन्न जानना सम्यग्ज्ञान है उस सम्यग्ज्ञान में अचारण अर्थात् उस रूप परिणमन वह ज्ञानाचार है अथवा काल, विनय, उपधान, बहुमान, अनिन्हव अर्थ, व्यंजन और तदुभय सम्पन्न व्यवहार ज्ञानाचार है निज शुद्ध आत्मा में रागादि विकल्प से रहित स्वाभाविक सुखास्वाद में निश्चय चित्त होना वीतराग चारित्र है उसमें आचरण अर्थात् परिणमन ही निश्चय चारित्राचार है अथवा मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति के कारणभूत पंचमहाव्रत सहित तीन गुप्ति और पाँच समिति स्वरूप व्यवहार चारित्राचार है। स्वरूप में परद्रव्य की इच्छा का निरोध कर सहज आनन्द रूप तपश्चरण स्वरूप परिणमन निश्चय तपाचार है। अनशनादि बाह्यतप रूप बाह्य तपाचार है निज शुद्धात्मा स्वरूप में अपनी शक्ति को प्रकटकर आचरण या परिणमन करना निश्चय वीर्याचार है। अपनी शक्ति प्रकटकर मुनिव्रत का आचरण करना व्यवहार वीर्याचार है।