गहराई से आत्मा की अनुभूति
अहो! गुरुदेव आपका ही तो उपकार है जो आत्मा को गहराई से जानने का अवसर मिला। आत्मा की अनुभूति करना बहुत ही तार्किक और लॉजिकल है क्योंकि उसके बिना सुख पाना संभव ही नहीं।
अहो सुख पाने का तो एक ही मार्ग है और वह सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक चारित्र । अहो जो अनुभव किया है वह ही यथार्थ सत्य है अर्थात जो ज्ञायक भाव है वह तो वह ही है अन्य नहीं।
आत्मा को जानने का उपाय एक क्रम से होता है और उसके हर क्रम को लक्षण से जाना जा सकता है ।
अहो! लक्षण को जानने की युक्ति अस्ति और नास्ति दोनों अपेक्षा से करनी चाहिए।
जो पर को क्षति पहुंचाने में हर्ष का अनुभव करते है उनका स्व का विकल्प भी नहीं, अपितु मिथ्यात्व बहुत तीव्र है, मोह भी तीव्र है, कषाय भी तीव्र है , अतः द्वेष भी तीव्र है, राग भी तीव्र है और इसलिए पाप भी तीव्र है । अहो! वे जीव अंधे रूप होने से अनन्त पट्टियों के आवरण से युक्त है उन्हें इस दशा में किसी भी उपदेश की पात्रता नहीं है।
आत्मा को जानने के लिए मंद परिणाम की भूमिका बहुत आवश्यक है। बिना मंद परिणाम के उपदेश और उपदेश का पाचन दोनों ही व्यर्थ है और पाप के तीव्र उदय में कदाचित उपदेश भी अग्नि में घी के रूप कार्य करता है। सो एसी दशा में मौन रहना और सही समय का अर्थात मंद परिणामकी प्रतीक्षा करना ही सार्थक है।
अहो ! जीव को जानने का एक मात्र उपाय उस आत्म स्वरूप का दर्शन (निर्णय), उस आत्म स्वरूप का ज्ञान और उस स्व आत्म स्वरूप का संवेदन अर्थात अनुभव अर्थात चारित्र। इतना सुगम मार्ग है लेकिन इसको छोड़ इसके विपरीत अन्य कार्य करने की हठ और दर्शन, ज्ञान और चारित्र में प्रमाद ही एक मात्र भूल है। उस भूल को दूर करने का उपाय मिथ्या मार्ग को छोड़ सम्यक मार्ग को चुनना और दर्शन, ज्ञान और चारित्र में प्रमाद का त्याग और यथार्थ से आत्मा में ही दर्शन, ज्ञान और चारित्र का रमण ही इस दुःख का अंत है। अन्य कोइ उपाय कारगर नहीं फ़िर भले ११ अंग और ९ पर्व का ही ज्ञान क्यों न हो जाए।
अहो! आत्मा को पहिचानने के लिए कितने चोले और भेष धारण किए हुए है उन्हें उनके लक्षण से जानना ही एक मात्र उपाय है। अहो बंधन को बंधन जान लो तो यूं ही सजह में बंधन को तोड़ने का उपाय करेंगे और बंधन टूटने से ही बंधन से छुटकारा मिलेगा अन्यथा संभव नहीं।
आत्मा का सबसे भारी और तीव्रता का सूचक चोले का नाम है पाप की तीव्रता । अहो हिंसा, झूठ , चोरी, कुशील और परिग्रह की अत्यंत तीव्रता युक्त जीव जो है वह नियम से कषाय युक्त, द्वेष युक्त, राग युक्त, पर दृष्टि युक्त, आत्मा से अनभिज्ञ युक्त, गुणों से अनभिज्ञ युक्त, पर्याय से अनभिज्ञ युक्त, त्रिकाली द्रव्य से अनभिज्ञ युक्त, त्रिकाली द्रव्य के लक्षण से अनभिज्ञ युक्त होने से लक्षण को पहिचानने में अव्याप्ति, अतिव्याप्ति और असंभव दोष सहित होने से यथार्थ वस्तु को न जानता है और न ही पहचानता है तो फिर बिना जानें आत्मा का अनुभव नहीं कर सकता तो सुख कैसे प्राप्त करें। उपाय तो एक मात्र है लक्षण से स्वात्मा जो आपका लक्ष्य है उसे जानें और पहिचाने और पहिचान कर उसमें रमण करें तो अनंत सुख की प्राप्ति तो बहुत सहज है। अत्यंत सरल उपाय है लेकिन पुरुषार्थ तो उस उपाय को जानकर उस उपाय को करने पर सहज ही हो जाएगा।
आंख पर पट्टी रखने पर हर चीज़ काली दिखाई देती है और काली चीज भी काली दिखाई पड़ती है। तो इस मर्ज को दुर करने का उपाय क्या ? इस मर्ज को दूर करने का एक मात्र उपाय है उस आंख की पट्टी को निकाल दें लेकिन मिथ्या के कारण उस भ्रम के कारण वह पट्टी निकाल ही नहीं जाती तो फिर उस मर्ज को कैसे दूर करें।
आत्मा में तीव्र पाप नहीं हैं क्योंकि तीव्र पाप सहज ही दुख है और दुःख आत्मा का स्वभाव नहीं , ऐसा उपदेश तो लोक में भी है और पाप को सही ठहराने वालों को लोक भी मानसिक रोगी जानता है । आत्मा कम तीव्र पाप जिसमें मनुष्य और संज्ञी पंच इन्द्रिय को जीव जानता है लेकिन बाकि जीवों को जीव नहीं जानता, अहो वह भी उस समय मिथ्या दृष्टि ही है ।
थोड़ी और मंदता , पाप के तीव्र परिणामों में आने पर जीव तो समझता है लेकिन अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिए यदि उनको हानि भी पहुंचती है और मरण भी हो तो उसमें संकोच नहीं करता है। स्वार्थ को ज्यादा ज़ोर देता है।
उससे भी थोड़ी और मंदता , जब पाप की तीव्रता में होती है तो फिर उसका विवेक जागृत होता है और वह एक तरफ पाप और दूसरे समय में पुण्य का कार्य कर उसे बराबर करने का प्रयास करता है लेकिन मरण का परिणाम मरण ही है ऐसा ही कर्म का उपदेश है लेकिन वह अनंत मरण के बदले दान इत्यादि पुण्य के परिणाम से उसे कम करने का प्रयास करता है जो कर्म के परिणाम में संभव नहीं क्योंकि दान आदि शुभ परिणाम का फल तो कुछ सहज संयोग ही होंगे, ना कि मरण और अत्यंत दुख के परिणाम से छुटकारा।
अब इस पाप की तीव्रता से और थोड़े मंद परिणाम होते है तो जीव पर जीव के दुख को अपना जान करुणा करता है और ऐसे पाप आरंभ में कमी और पुण्य के परिणाम में वृद्धि करने का संकल्प लेता है लेकिन उस पाप के परिणाम में अभी भी उपादेय बुद्धि ही रखता है, वह भी मिथ्या दृष्टि ही है।
अब कदाचित पाप के तीव्र परिणाम में हेय बुद्धि जान सभी जीवों को जीव ही मानता है और ऐसे जीव हत्या के परिणाम में किंचित भी विकल्प भी नहीं रखता है। लेकिन द्वेष की तीव्रता अर्थात क्रोध और मान की अधिक तीव्रता लेकिन पाप की उपरोक्त तीव्रता से किंचित कम अर्थात द्वेष की निर्मम तीव्रता जो पाप के परिणाम में होती है उससे कम।
नोट: यहां जानना यह विशेष है कि जब पाप के परिणाम की तीव्रता होती है तो नियम से द्वेष, राग, कषाय, नो कषाय, मोह, पर में आसक्ति, पर में उपयोग, मिथ्यात्व, स्व की अज्ञानता, स्व के स्वरूप की विरादना आदि की तीव्रता नियम से होती ही है। ऐसा नहीं हो सकता है कि पाप की तीव्रता हो और अन्य की तीव्रता न हो , भले देह के परिणाम में मंदता दिखने पर भी उन सभी भावों की अत्यंत तीव्रता ही जानना।
अब कदाचित द्वेष के परिणामों में अपेक्षाकृत मंदता हो भी लेकिन बुद्धि तो अनंतानुबंधी कषाय की है अर्थात क्रोध भी पाप की तीव्रता में अपेक्षा कृत मंदता होने पर भी नियम से अनंतानुबंधी का ही बंधन है क्योंकि जब तक आत्मा की अनुभूति नहीं है नियम से अनंतानुबंधी की कषाय रहेगी।
द्वेष की तीव्रता में अपेक्षा कृत मंदता है और राग के परिणाम अर्थात माया और लोभ में तीव्रता है तो वह भी नियम से अनंतानुबंधी कषाय ही है।
इन द्वेष और राग जिस कारण से जीव में चिपके है एसे मोह जो पर द्रव्य के विषयों में आकर्षित होता है , उस मोह को पहिचानना उतना ही आवश्यक है क्योंकि मोह के कारण पर पर दृष्टि होती है क्योंकि सुख बुद्धि पर में ही है। विषयों में सुख बुद्धि की इच्छा भी दुख का ही कारण है।
मोह का कारण जानने के लिए जब भेद किया तो ज्ञात हुआ कि इसका कारण तो मिथ्यात्व है अर्थात स्व पर का भेद ज्ञान नहीं सो मति विपरीत होती है, आधार आधेय अर्थात कारण और कार्य का भेद नहीं सो मति विपरीत होती है और व्यवहार और निश्चय का ज्ञान नहीं सो मति विपरीत होती है। स्व और पर में दर्शन मलिन है, कारण और कार्य में भेद न कर पाने के कारण, ज्ञान मलिन अर्थात विपरीत है और व्यवहार और निश्चय में व्यवहार को ही द्रव्य मानने पर अनुभव मलिन है अर्थात चारित्र मलिन है। अहो इस मोह का कारण मिथ्यात्व है ।
अहो इन सबसे भिन्न मेरे प्रमाण द्रव्य को पहचानने के लिए अलिंग्रहण के 20 बोल से आत्मा के प्रमाण द्रव्य की पहिचान की जा सकती है। आत्मा में ज्ञान आदि अनंत गुण है और उपयोग उसका लक्षण है और गुणों को ही भोगना मेरे स्वात्मा का स्वभाव है क्योंकि उसकी अनुभूति ही मैं हूं अर्थात जीव पर्याय को ही भोग सकता है ना कि द्रव्य को और जब पर्याय पूर्ण रूप से जा कर द्रव्य को समर्पित हो जाए और पर्याय ही स्वयं को द्रव्य रूप माने तो पर्याय द्रव्य के संपूर्ण गुणों को भोगती है और अनंत सुखी हो जाती है। ऐसा विचार ही विकल्प है। और जब ऐसा स्व का विकल्प उठे अर्थात जिज्ञासा उठे लेकिन अनुभव न हो तो उसको बतलाने वाले सच्चे देव शास्त्र गुरु की खोज से उत्कृष्ट शुभ बंध बनना शुरू होता है। दान आदि से तो हीन पुण्य बंधता है लेकिन सही मार्ग की जिज्ञासा से ही उत्कृष्ट पुण्य बंधना शुरू हो जाता है।
इन 20 बोलों में ज्ञान की मुख्यता से यह जाना कि
1. आत्मा अन्य को इंद्रियों और अनुमान से नहीं जानता
2. मैं ऐसा द्रव्य भी नहीं जो किसी की इंद्रियों से ही जानने में आऊं
3. मैं ऐसा द्रव्य भी नहीं कि कोई मुझे अनुमान से जाने
4. मैं पर जीवों को और अन्य द्रव्यों को स्व संवेदन से जान सकता हूं
5. अन्य पर जीव भी राग रहित होकर मुझे उनके स्व संवेदन से जान सकते है
6. मैं स्वयं को इन्द्रिय और अनुमान से नहीं अपितु साक्षात प्रत्यक्ष जानता हूं
7. उपयोग मेरा ही लक्षण है जैसे गलकन गाय का, उसी प्रकार उपयोग में पर का अवलंबन नहीं जैसे गलकन में अन्य जीवों का नहीं अपितु गाय का ही अवलंबन है
8. उपयोग उपयोग में से ही आता है अन्य से नहीं, जैसे गाय का गलकन गाय में से ही आता है
9. मेरे उपयोग को कोई चुरा नहीं सकता है
10. उपयोग कितने ही ज्ञेय को भले जान ले लेकिन मलिन नहीं होता है अर्थात ज्ञेय का उपयोग में प्रवेश नहीं
11. उपयोग उपयोग अर्थात आत्मा में ही एकाग्र होता है और कहीं भी नहीं जैसे गलकन गाय में ही एकाग्र है और कहीं नहीं
12. आत्मा आत्मा के गुणों अर्थात ज्ञान, दर्शन आदि का ही भोक्ता है अन्य का नहीं
13. आत्मा जड़ प्राणों से जीवित नहीं है अर्थात आत्मा अपनी जीवत्व शक्ति के कारण जीवित रहता है ना कि इन्द्रिय ,मन, बल , श्वासच्छोवास आदि दस प्राणों से
14. आत्मा का आकार इंद्रिय जड़ रूप नहीं। अर्थात आत्मा का अंश भी जड़ इंद्रियों में है नहीं।
15. आत्मा लोकाकाश प्रमाण असंख्य प्रदेशी है और उस ही में व्याप्त है ना कि लोकाकाश में सो लोक के अर्थात आकाश के प्रदेशों में आत्मा का अंश नहीं
16. आत्मा में कोई वेद नहीं अर्थात आत्मा न पुरुष है, स्त्री है और न ही नपुंसक है बल्कि आत्मा तो मात्र ज्ञायक भाव है।
17. आत्मा को किसी भी बाह्य धर्म चिन्ह से नहीं पहिचाना जा सकता है। आत्मा का कोई नोकर्म रूप चिन्ह नहीं, आत्मा का कोई द्रव्य कर्म रूप चिन्ह है और आत्मा का कोई भाव कर्म चिन्ह नहीं है। आत्मा के प्रदेश निश्चय से भाव कर्म रूप विभाव परिणाम में होते है लेकिन वे भाव अचेतन होने से उसमें भी आत्मा का अंश नहीं। उस मलिन दशा में भी जो आत्मा का स्वभाव है वहीं आत्मा है अर्थात जैसे साफ सरोवर में भी चन्द्रमा आदि का प्रतिबिंब उसमें दिखाई पड़ता है और कीचड़ के साथ भरे सरोवर में भी चन्द्रमा का प्रतिबिंब दिखाई पड़ता है। जो दोनों अवस्था में स्वभाव पर दृष्टि रखता है वही द्रव्य दृष्टि रखता है। सो कीचड़ से आत्मा की पहचान भी मिथ्या है।
18. आत्मा गुण भेद रूप भी नहीं है क्योंकि आत्मा सर्वांग है संपूर्ण है ।
19. आत्म द्रव्य निर्मल पर्याय में नहीं है
20. निर्मल पर्याय भी आत्मा नहीं है अपितु वह भी द्रव्य में संपूर्ण समर्पित है ।
अहो इस आत्मा को बाह्य चिह्न से नहीं पहिचाना जा सकता है। आत्मा को आत्मा की अनुभूति से ही पहचान सकते है और वह अमूर्तिक है लेकिन जिस प्रकार अंधे को रस गुल्ले का रंग, आकार दिखाई नहीं पड़ता है फिर भी वह उसका स्वाद ले सकता है, उसी प्रकार आत्मा को स्व संवेदन से प्रत्यक्ष जाना जा सकता है भले उसके आत्म प्रदेश और उसके आकार को प्रत्यक्ष नहीं जान पाए तब भी वह स्व संवेदन प्रत्यक्ष है।
अहो आत्मा 29 प्रकार के भावों से भी भिन्न है अर्थात आत्मा
नहि वर्ण जीवके, गन्ध नहि, नहि स्पर्श, रस जीवके नहिं,
नहि रूप अर संहनन नहिं संस्थान नहि, तन भी नहिं ॥५०॥
नहि राग जीवके, द्वेष नहिं, अरु मोह जीवके है नहीं,
प्रत्यय नहीं, नहिं कर्म अरु नोकर्म भी जीवके नहीं ॥५१॥
नहिं वर्ग जीवके, वर्गणा नहिं, कर्मस्पर्धक हैं नहीं, अध्यात्मस्थान न जीवके, अनुभागस्थान भी हैं नहीं ॥५२॥
जीवके नहीं कुछ योगस्थान रु बन्धस्थान भी हैं नहीं,
नहिं उदयस्थान न जीवके, अरु स्थान मार्गणके नहीं ॥ ५३॥
स्थितिबन्धस्थान न जीवके, संक्लेशस्थान भी हैं नहीं,
जीवके विशुद्धिस्थान, संयमलब्धिस्थान भी हैं नहीं ॥ ५४॥
नहिं जीवस्थान भी जीवके, गुणस्थान भी जीवके नहीं,
ये सब ही पुद्गलद्रव्यके परिणाम हैं जानो यही ॥ ५५ ॥
1.वर्ण(5): जो काला, हरा, पीला, लाल और सफेद वर्ण है वह सर्व ही जीवका नहीं है, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है । १।
2. गंध(2): जो सुगन्ध और दुर्गन्ध है वह सर्व ही जीवकी नहीं है, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है । २ ।
3. रस(5): जो कडुवा, कषायला, चरपरा, खट्टा और मीठा रस है वह सर्व ही जीवका नहीं है, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है। ३ ।
4. स्पर्श(8) : जो चिकना, रूखा, ठण्डा, गर्म, भारी, हलका, कोमल अथवा कठोर स्पर्श है वह सर्व ही जीवका नहीं है, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है। ४।
5.रूप(आकार): जो स्पर्शादिसामान्यपरिणाममात्र रूप है वह जीवका नहीं है, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है । ५।
6.शरीर (5) : जो औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस अथवा कार्मण शरीर है वह सर्व ही जीवका नहीं है, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है । ६ ।
7.संस्थान(6) :जो समचतुरस्र, न्यग्रोधपरिमण्डल, स्वाति, कुब्जक, वामन अथवा हुण्डक संस्थान है वह सर्व ही जीवका नहीं है, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है । ७ ।
8.संहनन (6):जो वज्रर्षभनाराच, वज्रनाराच, नाराच अर्धनाराच, कीलिका अथवा असम्प्राप्तासृपाटिका संहनन है वह सर्व ही जीवका नहीं है, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है । ८ ।
9. राग : जो प्रीतिरूप राग है वह सर्व ही जीवका नहीं है, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणामम होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है । ९ ।
10. द्वेष : जो द्वेष है वह सर्व ही जीवका नहीं है, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे ( अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है । १० ।
11. मोह : जो यथार्थतत्त्वकी अप्रतिपत्तिरूप (अप्राप्तिरूप) मोह है वह सर्व ही जीवका नहीं है, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है। ११ ।
12. प्रत्यय (आस्रव) (4): मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग जिसके लक्षण हैं ऐसे जो प्रत्यय (आस्रव) वे सर्व ही जीवके नहीं हैं, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है। १२ ।
13. कर्म (8) : जो ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तरायरूप कर्म है वह सर्व ही जीवका नहीं है, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है। १३ ।
14. पर्याप्ति और नोकर्म (6+3) : जो छह पर्याप्तियोग (आहार, तन, मन, इंद्रिय, श्वासच्छवोस और भाषा) और तीन शरीरयोग्य वस्तु ( – पुद्गलस्कंध ) रूप नोकर्म है वह सर्व ही जीवका नहीं है, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है। १४ ।
15. वर्ग : जो कर्मके रसकी शक्तियोंका (अर्थात् अविभाग- परिच्छेदोंका) समूहरूप वर्ग है वह सर्व ही जीवका नहीं है, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है। १५ ।
16. वर्गणा : जो वर्गोंका समूहरूप वर्गणा है वह सर्व ही जीवका नहीं हैं, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है। १६ ।
17. स्पर्धक : जो मन्दतीव्ररसवाले कर्मसमूहके विशिष्ट न्यास (- जमाव ) रूप (वर्गणाके समूहरूप) स्पर्धक हैं वह सर्व ही जीवके नहीं हैं, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है। १७ ।
18. अध्यात्म स्थान : स्व-परके एकत्वका अध्यास (निश्चय) हो तब (वर्तनेवाले), विशुद्ध चैतन्यपरिणामसे भिन्नरूप जिनका लक्षण है ऐसे जो अध्यात्मस्थान हैं वह सर्व ही जीवके नहीं हैं, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है । १८ ।
19. अनुभाग स्थान(कर्म परिणाम की शक्ति) : भिन्न-भिन्न प्रकृतियोंके रसके परिणाम जिनका लक्षण है ऐसे जो अनुभागस्थान वे सर्व ही जीवके नहीं हैं, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है। १९ ।
20. योग स्थान (3) : कायवर्गणा, वचनवर्गणा और मनोवर्गणाका कम्पन जिनका लक्षण है ऐसे जो योगस्थान वे सर्व ही जीवके नहीं हैं, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है । २० ।
21. बंध स्थान (कर्म बंध): भिन्न-भिन्न प्रकृतियोंके परिणाम जिनका लक्षण है ऐसे जो बन्धस्थान वे सर्व ही जीवके नहीं हैं, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है । २१ ।
22. उदय स्थान (कर्म उदय) : अपने फलके उत्पन्न करनेमें समर्थ कर्म-अवस्था जिनका लक्षण है ऐसे जो उदयस्थान वे सर्व ही जीवके नहीं हैं, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है । २२ ।
23. मार्गणा (14): गति, इन्द्रिय, काय, योग(कंपन), वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या(Ora), भव्य, सम्यक्त्व, संज्ञा और आहार जिनका लक्षण है ऐसे जो मार्गणास्थान वे सर्व ही जीवके नहीं हैं, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है | २३ |
24. स्थिति बंध स्थान (सत्ता) : भिन्न-भिन्न प्रकृतियोंका अमुक काल तक साथ रहना जिनका लक्षण है ऐसे जो स्थितिबन्धस्थान वे सर्व ही जीवके नहीं हैं, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे ( अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है। २४ ।
25. संक्लेश स्थान(कर्म फल और निर्जरा) : कषायके विपाककी अतिशयता जिनका लक्षण है ऐसे जो संक्लेशस्थान वे सर्व ही जीवके नहीं हैं, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है । २५ ।(सांसारिक दुःख मेरा स्वभाव नहीं)
26. विशुद्धि स्थान : कषायके विपाककी मन्दता जिनका लक्षण है ऐसे जो विशुद्धिस्थान वे सर्व ही जीवके नहीं हैं, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है। २६ । (सांसारिक सुख भी मेरा स्वभाव नहीं)
27. संयमलब्धि स्थान : चारित्रमोहके विपाककी क्रमशः निवृत्ति जिनका लक्षण है ऐसे जो संयमलब्धिस्थान वे सर्व ही जीवके नहीं हैं,क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है। २७ । (सांसारिक सुख दुख की अपेक्षा कृत वह मोह भी मेरा नहीं)
28. जीव स्थान (2–2–6): पर्याप्त एवं अपर्याप्त ऐसे बादर और सूक्ष्म एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, संज्ञी और असंज्ञी पंचेन्द्रिय जिनके लक्षण हैं ऐसे जो जीवस्थान वे सर्व ही जीवके नहीं हैं, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके हैं परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है । २८ । (इंद्रियों की शक्ति रूप अनुभूति भी मेरी नहीं)
29. गुण स्थान (14): मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण उपशमक तथा क्षपक, अनिवृत्तिबादरसांपराय — उपशमक तथा क्षपक, सूक्ष्मसांपराय– उपशमक – तथा क्षपक, उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय, सयोगकेवली और अयोगकेवली जिनका लक्षण हैं ऐसे जो गुणस्थान वे सर्व ही जीवके नहीं हैं, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न हैं । २९ ।
(इसप्रकार ये समस्त ही पुद्गलद्रव्यके परिणाममय भाव हैं; वे सब, जीवके नहीं हैं। जीव तो परमार्थसे चैतन्यशक्तिमात्र है। ) ||५० से ५५।।
anekantpreneur
जो मेरे अनुरुप नहीं, फ़िर भी परिणमन करवाने पर दुःख का एहसास करवाएं तो समझ लेना राग तीव्र है।