नि:संग हैं जो वायुसम, निर्लेप हैं आकाश से । निज आत्म में ही विहरते, जीवन न पर की आस से ॥ जिनके निकट सिंहादि पशु भी, भूल जाते क्रूरता । उन दिव्य गुरुओं की अहो! कैसी अलौकिक शूरता ॥
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