स्वोपकार
स्वयं अपना और दूसरों को उपकार करना अनुग्रह है। दान देने से जो पुण्य का संचय होता है, वह अपना उपकार है, क्योंकि उसका फल भोग स्वयं को प्राप्त होता है । हे आत्मन् तू लोक के समान मूढ़ बनकर दृश्यमान शरीर आदि पर पदार्थों का उपकार कर रहा है, ये सब तेरा अज्ञान है । अब तू पर के उपकार की चिन्ता न कर। अपने ही उपकार में लीन हो । स्वोपकार के समाने पर उपकार का निषेध क्रिया है। अपना हित करना चाहिए । शख्य हो तो पर का भी हित करना चाहिए, पर आत्मिक और परहित, इन दोनों में से उत्तम तो आत्महित करना ही है ।