संयतासंयत
जो भव्य जीव जिनेन्द्र भगवान में श्रद्धा रखता है तथा त्रस जीवों की हिंसा से विरत है लेकिन स्थावर जीवों के घात से विरत नहीं है उसे संयतासंयत कहते हैं अथवा पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों से युक्त और प्रतिसमय असंख्यात गुण श्रेणी रूप निर्जरा करने वाले सम्यग्दृष्टि जीव देशविरत, या संयतासंयत कहलाते हैं। इसे विरताविरत भी कहते हैं। देव व नारक गति में संयतासंयत नहीं होते हैं। भोगभूमिज म्लेच्छ खंड में भी संयतासंयत नहीं होते। कर्मभूमि के आर्यखंड में संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच नहीं होते और मनुष्य ही संयतासंयत हो सकते हैं। विद्याधरों में भी संयतासंयत अवस्था प्राप्त होना सम्भव है जिसने पहले देवायु अतिरिक्त तीन में से कोई भी आयु को बंध लिया है ऐसा जीव संयतासंयत को प्राप्त नहीं हो सकता। संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में उत्पन्न हुआ जीव दो मास और मुहूर्त प्रथ्कत्व के बीत जाने पर सम्यकत्व और संयमासंयम ग्रहण करने के योग्य होता है मनुष्यों में उत्पन्न हुआ जीव गर्भ से निकल कर अन्तमुहूर्त और आठ वर्ष व्यतीत हो जाने पर सम्यक्त्व संयम और संयामासंयम के योग्य होता है। कोई देशव्रती श्रावक व्रतों का निर्दोष पालन करके कम से कम तीसरे भव में सिद्ध हो सकता है कोई देशव्रती क्रम से देव व मनुष्यों के सुख को भोगकर पाँचवें, सातवें या आठवें भव में सिद्ध पद को प्राप्त करते हैं।