संतोष भावना
मान अपमान में समता से अशनपानादि में यथा लाभ में समता रखना सो संतोष भावना है। आत्मा से उत्पन्न सुख में तृप्ति और विषय सुख से निर्वृत्ति ही इसका फल है। संदिग्धा सिद्धहेत्वाभास अनुमान के स्वरूप से सर्वथा अनभिज्ञ किसी मूर्ख मनुष्य के सामने कहना कि- ‘यहाँ अग्नि है क्योंकि धुंआ है’। यह अविद्यमान निश्चय अर्थात् संदिग्धासिद्ध है क्योंकि मूर्ख मनुष्य किसी समय पृथ्वी आदि भूतसंघात (बटलोई आदि ) में भाषा आदि को देखकर यहाँ अग्नि है या नहीं ऐसा संदेह कर बैठता है। संदिग्धासिद्ध ऐसा है जैसे कि- ‘इस निकुंज में मोर कूंकता है ऐसा कहना। क्योंकि वहाँ ऐसा संदेह है कि क्या यह स्वर भेद का है या मनुष्य का है। इसी प्रकार आश्रय में भी क्या इस कुंज से बोलता है अथवा किसी अन्य से ऐसा संदेह है इसलिए इसकी असंदिग्धासिद्ध पना है ही।