संज्ञा
1. संज्ञा का अर्थ नाम है। 2. नो इन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम को या तज्जन्य ज्ञान को संज्ञा कहते हैं। 3. आहार आदि विषयों की अभिलाषा को संज्ञा कहा जाता है वांछा, संज्ञा, अभिलाषा ये एकार्थवाची है संज्ञा चार प्रकार की है- आहार, भय, मैथुन और परिग्रह। विशिष्ट अन्न आदि में वांछा का होना आहार संज्ञा है । अत्यन्त भय से उत्पन्न जो भागकर छिप जाने आदि की इच्छा है वह भय संज्ञा है मैथुनरूप क्रिया की इच्छा को मैथुनसंज्ञा कहते हैं । धन-धान्य आदि के अर्जन करने की वांछा को परिग्रह संज्ञा कहते हैं। मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर प्रमत्त संयत गुणस्थान तक चारों संज्ञाऐं होती हैं प्रमत्त संयत गुणस्थान में आहार संज्ञा का विच्छेद हो जाता है। अपूर्वकरण पर्यन्त शेष तीन संज्ञाए हैं अपूर्वकरण में भय संज्ञा का विच्छेद हो जाता है अनिवृत्तिकरण के सवेद भाग तक मैथुन व परिग्रह दो संज्ञाए हैं। यहाँ मैथुन संज्ञा का विच्छेद हो जाता है और सूक्ष्म साम्पराय में एक मात्र परिग्रह संज्ञा रह जाती है उसका भी वहाँ विच्छेद हो जाता है तब ऊपर के उपशान्त आदि गुणस्थान में संज्ञा का अभाव है इस चारों संज्ञाओं के अभाव को क्षीणसंज्ञा कहते हैं अप्रमत्त आदि ऊपर के गुणस्थानों में भय आदि संज्ञाओं के कारणभूत कर्मों का उदय संभव है इसलिए उपचार से भय और मैथुन संज्ञा का सद्भाव स्वीकार किया गया है ।संज्ञाओं के अपने-अपने कर्म की उदीरणा होने पर संज्ञा उत्पन्न होती है। इसी कारण असाता वेदनीय कर्म की उदीरणा का अभाव होने से अप्रमत्त संयत के आहार संज्ञा नहीं है। संज्ञाओं के अपने-अपने कर्म की उदीरणा होने पर संज्ञा उत्पन्न होती है। इसी कारण असाता वेदनीय कर्म की उदीरणा का अभाव होने से अप्रमत्त संयत के आहार संज्ञा नहीं है।