विपुलमति
सरल या वक्र मन-वचन-काय के किया गया कोई अर्थ उसके चिन्तवन युक्त किसी अन्य जीव के मन को जानने में निष्पन्न या अनिष्पन्न मति को विपुल कहते हैं। ऐसी विपुल या कुटिल मति है जिसकी, सो विपुलमति है। दूसरे की मति में स्थित पदार्थ मति कहा जाता है। विपुल का अर्थ विस्तीर्ण है। यथार्थ, अयथार्थ, उभय तीनों प्रकार के मन तीनों प्रकार के वचन व तीनों प्रकार के काय को प्राप्त होने से विपुलता है, जो विपुलमति मनःपर्ययज्ञान है। सरल मनगत पदार्थ को जानता है, सरल वचनयुक्त पदार्थ को जानता है, सरल कायगत पदार्थ को जानता है। कुटिल वचन युक्त पदार्थ को जानता है और कुटिल कायगत पदार्थ को जानता है । यह वर्तमान जीव और अवर्तमान जीवों के अथवा व्यक्त मन वाले तथा अव्यक्त मन वाले जीवों के सुख आदि को जानता है या अपने और पर के व्यक्त मन से या अव्यक्त मन से चिन्तित या अचिन्तित या अर्धचिन्तित सभी प्रकार के चिन्ता जीवन-मरण, सुख-दुख, लाभ-अलाभ आदि को जानता है। द्रव्य की अपेक्षा यह जघन्य एक समय रूप इन्द्रिय निर्जरा को जानता है। उत्कृष्ट द्रव्य में ज्ञापनार्थ उसके योग्य अवस्थित कल्पों के समय की शलाका रूप से स्थापित करके मानोद्रव्य वर्गणा के अनन्तवें भाग का विरलन कर विस्रोपचय रहित आठ कर्मों से सम्बद्ध अजघन्य अनुत्कृष्ट एक समय प्रबद्ध को समखण्ड करके देने पर उसमें एक खण्ड द्रव्य का द्वितीय विकल्प होता है। इस समय श्लाका राशि में से एक रूप कम करना चाहिए । इस प्रकार इस विधान से श्लाका राशि समाप्त होने तक ले जाना चाहिए । इसमें अंतिम द्रव्य विकल्पों को मध्यम विपुलमति जानता है। काल की अपेक्षा जघन्य से सात-आठ भवों को और उत्कृष्ट से असंख्यात भवों को जानता है। इस काल के भीतर जीवों की गति-अगति, भुक्त और प्रतिसेवित अर्थ को जानता है। क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य से योजन पृथ्कत्व अर्थात् 8.9 घन योजन प्रमाण क्षेत्र को जानता है। उत्कर्ष से मानुषोत्तर पर्वत के भीतर जानता है, बाहर नहीं जानता है । भाव की अपेक्षा विपुलमति का विषय भूत भाव जघन्य तो ऋजुमति के उत्कृष्ट भाव से असंख्यात गुना है और उत्कृष्ट असंख्यात लोक प्रमाण है। ऋजुमति से विपुलमति में विशुद्धि अधिक होती है । अप्रतिपात की अपेक्षा भी विपुलमति विशिष्ट है क्योंकि इसके स्वामियों के प्रवर्द्धमान चारित्र पाया जाता है, परन्तु ऋजुमति प्रतिपाती है क्योंकि इसके स्वामियों के कषाय के उदय से घटता हुआ चारित्र पाया जाता है। मनःपर्यय ज्ञानी प्रमत्त संयत से क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ गुणस्थान तक होते हैं।