वर्ण व्यवस्था
भरत क्षेत्र में भगवान ऋषभदेव ने क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र इन तीन वर्गों की स्थापना की थी बाद में भरत चक्रवर्ती ने एक ब्राह्मण वर्ण की स्थापना और कर दी। भरत चक्रवर्ती ने सद्व्रती गृहस्थों की परीक्षा करने के लिए समस्त राजाओं को अपने-अपने परिवार व परिवार सहित राजमहल में आमंत्रित किया। उनके विवेक की परीक्षा के लिए अपने महल के आंगन में अंकुर, फल व पुष्प भरवा दिया जो लोग बिना सोचे समझे उन अंकुरों को कुचलते हुए राजमहल में घुस आए उनको अलग कर दिया और जो लोग अंकुरों आदि पर पाँव रखने में (जीव हिंसा के) भय से अपने घरों को वापिस लौटने लगे उनको दूसरे मार्ग से प्रवेश कराकर चक्रवर्ती ने बहुत सम्मानित किया उनको व्रत व प्रतिमाओं के अनुसार यज्ञोपवीत से चिंहित किया और उपासकाध्ययन का उपदेश देकर अहंत पूजा आदि नित्य कर्म व कर्त्तव्य बताए । पूजा, वार्ता, दान, स्वाध्याय, संयम व तप इन छह प्रकार की विशुद्ध वृत्ति के कारण उनको द्विज संज्ञा दी। इस तरह ब्राह्मण वर्ण की स्थापना की । यद्यपि जाति नामकर्म के उदय से उत्पन्न हुई मनुष्य जाति एक है तथापि आजीविका के भेद से होने वाले भेद के कारण वह चार प्रकार की हो गई । व्रतों के संस्कार से ब्राह्मण, शस्त्र धारण करने से क्षत्रिय, न्यायपूर्वक धन कमाने से वैश्य और सेवावृत्ति का आश्रय लेने से मनुष्य शूद्र कहलाते हैं ये सभी वर्गों के लोग अपनी-अपनी निश्चित आजीविका को छोड़कर अन्य वर्ण की आजीविका नहीं करते । विदेह क्षेत्र में क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र ये तीन वर्णन है अन्य वर्ण नहीं हैं। वर्ण्यसमा प्रसिद्ध कथन के योग्य वर्ण्य है और उसके विपरीत अवर्ण्य है। ये दोनों साध्य दृष्टांत के धर्म हैं। इसके विपर्यय वर्ण्यावर्ण्यसमा कहते हैं । जैसे- लोष्ठ क्रियावान व विभु देखा जाता है। उसी प्रकार आत्मा भी क्रियावान व विभु हो जाओ, अथवा यूँ कहिये कि वर्ण्य तो साधने योग्य होता है, अवर्ण्य असाध्य है। अर्थात् दृष्टांत में संदिग्ध साध्य सहितपने का अपादान करना वर्ण्यसमा है, और पक्ष में असंदिग्ध साध्य सहितपने का प्रसंग देना वर्ण्यसमा है ।