लोक
आकाश के जितने भाग में जीव पुद्गल आदि षद्रव्य देखे जाते हैं वह लोक और उसके चारों ओर शेष अनंत आकाश अलोक कहलाता है अथवा षट् द्रव्यों का समवाय लोक है अथवा जहाँ पुण्य-पाप का फल जो सुख-दुख रूप है वह देखा जाता है सो लोक है अथवा जो पदार्थों को देखे व जाने सो लोक इस व्युत्पत्ति से लोक का अर्थ आत्मा है। आत्मा स्वयं अपने स्वरूप का लोकन करता है अतः लोक है। समूचा लोक तीन भागों में विभक्त है अधोलोक, मध्यलोक व उर्ध्वलोक । अधोलोक का आकार स्वभाव से वेत्रासन के सदृश है। मध्यलोक का आकार खड़े किए हुए आधे मृदंग के उर्ध्वभाग के समान है तथा उर्ध्वलोक का आकार खड़े किए हुए मृदंग के सदृश है। लोक की मोटाई सर्वत्र सात राजू है और विस्तार क्रम से लोक के नीचे सात राजू, मध्यलोक में एक राजू, ब्रह्म स्वर्ग पर पाँच राजू और लोक के अन्त में एक राजू है। लोक की ऊँचाई चौदह राजू है। क्रम से अधोलोक की ऊँचाई सात राजू, मध्यलोक की ऊँचाई एक लाख योजन और उर्ध्वलोक की ऊँचाई एक लाख योजन कम सात राजू है। घनोदधि, घनवात और तनुवात ये तीन तरह के वातवलय ( वायुमंडल) वृक्ष की त्वचा के समान समूचे लोक को घेरे हुए हैं इनमें से प्रथम धनोदधि वातवलय लोक का आधार है, उसके पश्चात् घनवातवलय उसके पश्चात् तनुवातवलय और अन्त में निराधार आकाश है। अधोलोक में सातों पृथ्वियाँ उर्ध्व दिशा को छोड़कर शेष दिशाओं में धनोदधि वातवलय से लगी हुई हैं। अष्टम पृथिवी सभी दिशाओं में ही वातवलय को छूती है। सौधर्म युगल के विमान घन स्वरूप जल के ऊपर, माहेन्द्र आदि सनतकुमार के विमान वायु के ऊपर स्थित हैं। ब्रह्मादि चार युगल जल व वायु दोनों के ऊपर तथा आनतप्राणत आदि शेष विमान आकाश तल में स्थित हैं।