योग
1. सम्बन्ध का नाम योग है। 2. मन, वचन व काय के निमित्त से होने वाले आत्म प्रदेशों के हलन – चलन को योग कहते हैं अथवा आत्म प्रदेशों के संकोच और विस्तार रूप होने को योग कहते हैं । 3. योग का अर्थ समाधि व ध्यान भी होता है अथवा निरवद्य क्रिया के अनुष्ठान को योग कहते हैं। योग, समाधि व सम्यक् प्रणिधान ये एकार्थवाची हैं। 4. वर्षादि ऋतुओं की कालस्थिति को भी योग कहते हैं। वर्षायोग, आतापन योग आदि । आत्मप्रदेश परिस्पन्दन रूप योग तीन प्रकार का है- मनोयोग, वचनयोग और काययोग । एक काल में एक जीव के एक ही योग होता है, दो व तीन नहीं हो सकते ऐसा नियम है । वचनयोग और काययोग द्वि इन्द्रिय जीवों से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों तक होते हैं काययोग एकेन्द्रिय जीवों के होता है मनोयोग संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के होता है। मनोयोग और वचनयोग पर्याप्तकों के ही होते हैं अपर्याप्तकों के नहीं । काययोग पर्याप्तक व अपर्याप्तक दोनों के होता है औदारिक, वैक्रियिक और आहारक काययोग पर्याप्तकों के होता है । औदारिक मिश्र, वैक्रियिक मिश्र और आहारक मिश्र काययोग अपर्याप्तकों के होते हैं। मनोयोग चार प्रकार का है- सत्य मनोयोग, असत्य मनोयोग, उभय मनोयोग, अनुभय मनोयोग। वचनयोग चार प्रकार का है- सत्य वचनयोग, असत्य वचनयोग, उभय वचनयोग, अनुभय वचनयोग, काययोग सात प्रकार का है- औदारिक काय, औदारिक मिश्र काय, वैक्रियिक काय, वैक्रियिक मिश्र काय, आहारक काय, आहारक मिश्र काय और कार्माण काय । सामान्य से मनोयोग और विशेष रूप से सत्य मनोयोग है अनुभय मनोयोग संज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोग केवली पर्यन्त होते हैं। असत्य मनोयोग और उभय मनोयोग संज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ गुणस्थान तक पाए जाते हैं सामान्य से वचनयोग तक विशेष रूप से अनुभयवचन योग द्विन्द्रिय से लेकर सयोग केवलीगुण स्थान तक होता है। सत्य वचन योग संज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोग केवली गुणस्थान तक होता है असत्य वचनयोग और उभयवचन योग संज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर क्षीण कषाय वीतराग छद्मस्थ गुणस्थान तक पाये जाते हैं सामान्य से काययोग और विशेष की अपेक्षा औदारिक काययोग ओर औदारिक मिश्र काययोग एकेन्द्रिय से लेकर सयोग केवली गुणस्थान तक होते हैं। वैक्रियिक काययोग और वैक्रियिकमिश्र काययोग संज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर असंयत सम्यग्दृष्टि तक होते हैं। आहारक काययोग और आहारकमिश्र काययोग एक प्रमत्त गुणस्थान में ही होते हैं। कार्माण काययोग एकेन्द्रिय जीवों से लेकर सयोगकेवली तक होता है ।