यज्ञ
बहुत भारी दान देना और पूजा करना यज्ञ है आर्ष और अनार्ष के भेद से यज्ञ दो प्रकार का माना जाता है। क्रोधाग्नि, कामाग्नि ओर उदराग्नि इन तीन अग्नियों में क्षमा, वैराग्य और अनशन की आहुतियाँ देने वाले जो ऋषि, यति, मुनि और अनगार रूपी श्रेष्ठ द्विज वन में निवास करते हैं वे आत्मज्ञान कर इष्ट अर्थ को देने वाली अष्टम पृथिवी मोक्षस्थान को प्राप्त होते हैं इसके सिवाय तीर्थंकर, गणधर और अन्य केवलियों के उत्तम शरीर के संस्कार से उत्पन्न हुई तीन अग्नियों में अत्यन्त भक्त व उत्तम क्रियाओं के करने वाले तपस्वी गृहस्थ परमात्म पद को प्राप्त हुए। अपने पिता तथा पितामह को उद्देश्य कर मन्त्रोच्चार पूर्वक अष्टद्रव्य की आहुति देना आर्ष यज्ञ है, यह देवयज्ञ की विधि परम्परा से चली आयी है। किन्तु श्री मुनिसुव्रत नाथ के तीर्थ में सगर राजा से द्वेष रखने वाला एक महाकाल नाम का असुर हुआ था उस अज्ञानी ने हिंसायज्ञ का उपदेश दिया। यह यज्ञ मुनि और गृहस्थ के आश्रय से दो प्रकार का है जिसमें पहला मोक्ष का कारण एवं दूसरा परम्परा मोक्ष का कारण है।