मिथ्या एकान्त
एक धर्म का सर्वथा अवधारणा करके अन्य धर्मों का निराकरण करने वाला मिथ्या एकान्त है। अनेकान्तात्मक द्रव्य का सत्पात्र ही स्वरूप नहीं है, जो कथन अनेकान्त दृष्टि से रहित है, वह सब मिथ्या है क्योंकि वह अपना ही घातक है अर्थात् अनेकान्त के बिना एकान्त की स्वरूप प्रतिष्ठा बनी नहीं रह सकती। जिस प्रकार वस्तु को सर्वथा नित्य मानने में दोष आते हैं, वैसे ही उसे सर्वथा अनित्य मानने में दोष आते हैं। जैसे एक कंटक (पाँव में चुभे) दूसरे कंटक को निकालता है या नाश करता है, वैसे ही नित्यवादी और अनित्यवादी परस्पर दूषणों को दिखाकर एक-दूसरे का निराकरण करते हैं। जिस प्रकार जन्मजात अंधा पुरुष हाथी के यथार्थ स्वरूप को नहीं ग्रहण कर पाता है, किन्तु उसके किसी एक ही अंग को पकड़ कर उसे ही हाथी मान लेता है, ठीक इसी प्रकार कितने ही मंद बुद्धि मिथ्याएकान्तवादीयों के द्वारा प्ररूपित खोटे शास्त्रों के अभ्यास से पदार्थ को सर्वथा एक रूप ही मानकर उसके अनेक धर्मात्मक स्वरूप नहीं जानते हैं और इसलिए वे विनाश को प्राप्त होते हैं यही है इसी प्रकार है। धर्म और धर्मी में एकांत रूप अभिप्राय रखना एकान्त मिथ्यात्व है। जैसे यह सब जगत परब्रह्म रूप ही है, यह सब पदार्थ अनित्य ही है, या नित्य ही है, सत् ही है या असत् ही है, एक ही है या अनेक ही है, सावयव है या निरावयव ही है, इत्यादि एकान्त अभिनिवेश को एकान्त मिथ्यात्व कहते हैं।