मायाशल्य
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अंतरंग में राग द्वेष रूप जो मेरा दुर्ध्यान है उसे कोई भी नहीं जानता है ऐसा मानकर निज शुद्धात्म भावना से उत्पन्न निरन्तर आनंद रूप सुखामृत रस रूपी निर्मल जल से अपने मन की शुद्धि को न करता हुआ यह जीव बाहर में बगुले जैसे वेष को धारण करके जो लोक को प्रसन्न करता है वह माया शल्य कहलाती है।
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