मल परीषह जय
पसीना व धूल के कारण शरीर पर संचित मैल से उत्पन्न बाधा को समताभाव से सहन करना मल परीषह जय है। जलकायिक जीवों की पीड़ा का परिहार करने के लिए जिसने जीवनपर्यन्त अस्नान व्रत स्वीकार किया है। तीक्ष्ण सूर्यकिरणों के ताप से उत्पन्न हुए पसीने में जिसके हवा में आयी धूलि चिपक गई है। दाद व खाज के होने पर भी जो खुजलाने, मद्रन करने और दूसरे पदार्थ से घिसने रूप क्रिया से रहित है। स्वगतमल का उपचय और परगत मल का अपचय होने पर जिसके मन में किसी प्रकार विकल्प नहीं होता तथा सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र-रूपी विमल जल के प्रक्षालन द्वारा जो कर्म मल को दूर करने के लिए निरन्तर तत्पर है उस मुनि के मल परीषहजय कहा जाता है।