भोगभूमि
जहाँ ज्योतिरंग आदि दस प्रकार के कल्पवृक्ष हैं और कल्पवृक्षों से ही मनुष्यों की उपजीविका चलती है ऐसे स्थान को भोगभूमि कहते हैं | भोगभूमि में नगर, कुल, खेती आदि क्रिया, शिल्प, वर्णाश्रम की प्रवृत्ति नहीं होती। यह पुरुष और स्त्री पूर्वपुण्य से पति-पत्नी होकर रहते हैं वे सदा नीरोग ही रहते हैं और सुख भोगते हैं यहाँ के लोग स्वाभाविक रूप से ही मृदु परिणामी अर्थात् मन्द कषाय वाले होते हैं । सभी म्लेच्छ खण्डों में सदा जघन्य भोगभूमि होती है सभी अन्तर्द्वीपों में भी जघन्य भोगभूमि रहती है। हैमवत व हैरण्यवत इन दो क्षेत्रों में सदा जघन्य भोगभूमि हैं भोगभूमियों में सम्यग्दर्शन व ज्ञान तो होता है परन्तु भोग परिणाम होने से चारित्र नहीं होता। हरि और रम्यक इन दो क्षेत्रों में सदा मध्यम भोगभूमि रहती है विदेह के बहुमध्य भाग में सुमेरू पर्वत के दोनों और स्थित उत्तर कुरू व देवकुरू में सदैव उत्तम भोगभूमि रहती है। एक सौ छब्बीस भोगभूमियों में अर्थात् तीस भोगभूमियाँ और छयानबे कुभोगभूमियों में स्थित मनुष्य व तिर्यंचों के संकल्पवश से केवल एक सुख होता है। सब भोगभूमियों में सदा दो गुणस्थान (मिथ्यात्व और असंगत सम्यग्दृष्टि ) और उत्कृष्ट रूप से चार गुणस्थान तक रहते हैं। सब म्लेच्छ खण्डों में एकमात्र मिथ्यात्व गुणस्थान ही रहता है असंयत गुणस्थान में भोगभूमिज मनुष्य एवं तिर्यंच पर्याप्त व अपर्याप्त दोनों होते हैं। भोगभूमि में क्षायिक सम्यग्दर्शन की निष्ठापना हो सकती है प्रस्थापना नहीं। भोगभूमि में जलचर और विकलेन्द्रिय जीव नहीं होते केवल संज्ञीपंचेन्द्रिय ही होते हैं भोगभूमि में संयत व संयतासंयत मनुष्य व तिर्यंच भी नहीं होते हैं परन्तु देवों द्वारा ले जाकर डाले गए संयतासंयत वहाँ सम्भव है।