भवनवासी
जिनका स्वभाव भवनों में निवास करना है वे भवनवासी कहे जाते हैं। भवनवासी देव दस प्रकार के हैं— असुरकुमार, नागकुमार, विद्युत्कुमार, सुपर्णकुमार, अग्नि– कुमार, वातकुमार, स्तनितकुमार, उदधिकुमार, द्वीपकुमार और दिक्कुमार । यद्यपि इन सब देवों की आयु और स्वभाव अवस्थित है तो भी इनकी वेषभूषा, शस्त्र, यान, वाहन, क्रीड़ा आदि कुमारों के समान होती है इसलिए इनमें कुमार शब्द परम्परागत है। दस भवनवासियों में पृथक-पृथक दो-दो इन्द्र होते हैं और इतने ही प्रतीन्द्र होते हैं। दस हजार वर्ष की आयु का भवनवासी देव 100 मनुष्यों को मारने या बचाने में तथा डेढ़ सौ धनुष प्रमाण लम्बे चौड़े क्षेत्र को बाहुओं में समा लेने व उखाड़ने में समर्थ है एक पल्य की आयु वाला देव छह खण्ड पृथिवी को उखाड़ने तथा वहाँ रहने वाले मनुष्य व तिर्यंचों को मारने व बचाने में समर्थ है। एक सागर की आयु वाला देव जम्बूद्वीप को समुद्र में फेंकने तथा उसमें स्थित मनुष्यों व तिर्यंचों की रक्षा में समर्थ है दस हजार वर्ष की आयु का देव उत्कृष्ट रूप से सौ, जघन्य से सात रूपों की विक्रिया करता है, शेष सब देव अपने-अपने अवधि- ज्ञान के क्षेत्र प्रमाण विक्रिया करते हैं। संख्यात, असंख्यात वर्ष की आयु वाला देव क्रम से संख्यात, व असंख्यात योजन आवागमन करने में समर्थ है। चित्रा पृथिवी के खरभाग में ऊपर नीचे एक-एक हजार योजन छोड़कर शेष भाग में सात व्यन्तरों के तथा नव भवनवासियों के निवास हैं। पंक–बहुल भाग में असुरकुमार और राक्षसों के आवास हैं भवनवासी देवों के निवास स्थानों को भवन, भवनपुर और आवास कहते हैं। इनमें से रत्नप्रभा पृथिवी में स्थित निवास स्थानों को भवन, द्वीप, समुद्र के ऊपर स्थित निवास स्थानों को भवनपुर तथा तालाब, पर्वत, वृक्ष आदि पर बने निवासों को आवास कहते हैं।