प्रायोपगमन
जीवन का अंत समय आ जाने पर आहार का क्रमिक त्याग करके तथा स्वयं और दूसरे के द्वारा वैयावृत्ति की अपेक्षा न रखते हुए जो सल्लेखना ली जाती है उसे प्रायोपगमन कहते हैं । यह सल्लेखना की उत्कृष्ट विधि है। इसे ग्रहण करने वाले मुनिराज तृण के संस्तर आदि का भी उपयोग नहीं करते। अपने मल-मूत्र आदि का निराकरण भी न स्वयं करते हैं न दूसरे से करवाते है। सचित्त पृथ्वी, जल, अग्नि, वनस्पति व त्रस जीव-समूह के बीच यदि किसी ने उनको फेंक दिया तो भी शरीर से ममत्व छोड़कर अपनी आयु पूर्ण होने तक वहीं निश्चल रहते हैं। इस प्रकार स्व और पर के प्रतिकार से रहित इस प्रकार के करण को प्रयोपगमन करण कहते हैं।