प्रायोग्य लब्धि
प्रथमोपशम सम्यकत्व की प्राप्ति से पूर्व सर्व कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति और अनुभाग को घात करके अन्तः कोड़ाकोड़ी / स्थिति में और द्विस्थानीय अनुभाग में अवस्थित करने को प्रायोग्यलब्धि कहते हैं। प्रथमोपशम सम्यकत्व के सम्मुख हुआ जीव विशुद्धता की वृद्धि करता हुआ प्रायोग्यलब्धि के प्रथम समय से लगाकर पूर्वस्थिति बन्ध के संख्यातवें भाग मात्र अन्तः कोडाकोड़ी सागर प्रमाण सात कर्मों का (आयुकर्म के बिना ) स्थितिबंध करता है अप्रशस्त प्रकृतियों का द्विस्थानीय अनुभाग प्रतिसमय अनन्तगुणा घटता हुआ बंधता है और प्रशस्त प्रकृतियों का चतुःस्थानीय अनुभाग प्रतिसमय अनन्तगुणा बढ़ता हुआ बंधता है। अप्रशस्त प्रकृतियों का द्विस्थानीय रूप और प्रशस्त प्रकृतियों के चतुस्थान रूप अनुभाग का भोक्ता होता है।