प्रायश्चित्त
1. प्रमाद जन्य दोष का परिहार करना प्रायश्चित तप है संवेग और वैराग्य से युक्त साधु अपने प्रमादजन्य दोषों का निराकरण करने के लिए जो अनुष्ठान करते हैं वह प्रायश्चित नाम का तप है । 2. प्रायः शब्द का अर्थ लोक और चित्त शब्द का अर्थ मन होता है। जिसके द्वारा साधर्मी व संघ में रहने वाले लोगों का मन अपनी तरफ से शुद्ध हो जाए उस क्रिया या अनुष्ठान को प्रायश्चित कहते हैं। प्रायश्चित के नौ भेद हैं- आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक व्युतसर्ग, तप, छेद, परिहार और उपस्थापना । प्रमाद जन्य दोषों से बचने, भावों की निर्मलता प्राप्त करने, निःशल्य होने, अव्यवस्था दूर करने, मर्यादा का पालन करने, संयम की दृढ़ता लाने और आराधना की सिद्धि आदि के लिए प्रायश्चित के द्वारा विशुद्ध होना आवश्यक है।