प्रवज्या
जिनदीक्षा ग्रहण करना प्रवज्या है जो ग्रह और परिग्रह तथा उसके ममत्व से रहित है, बाईस परीषह तथा कषायों को जिसने जीता है, पापारम्भ से जो रहित है, शत्रु – मित्र में, निन्दा व प्रशंसा में, लाभ व अलाभ, में तृण व कांचन में जिसके समभाव हैं, ऐसी प्रवज्या है । यथाजात रूप धारण करना, निरायुध व शान्त रहना दूसरे के द्वारा बनाई वसतिका में अल्पवास करना और शरीर के संस्कार से रहित होना यह प्रवज्या का स्वरूप है। जिसका कुल गोत्र विशुद्ध है, चारित्र उत्तम है, मुख सुन्दर है और प्रतिभा अच्छी है ऐसा पुरुष ही दीक्षा ग्रहण करने के योग्य माना गया है। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन तीन वर्गों में से किसी एक वर्ण का, नीरोग, तप में समर्थ, अति बालत्व व वृद्धत्व से रहित योग्य आयु का, सुन्दर दुराचार आदि लोकापवाद से रहित पुरुष ही जिन लिंग को ग्रहण करने के योग्य होता है। जो मनुष्य (म्लेच्छ खण्ड में) दिग्विजय के काल में चक्रवर्ती के साथ आर्य खण्ड में आते हैं और चक्रवर्ती आदि के साथ उनका वैवाहिक सम्बन्ध पाया जाता है, इनके भी प्रवज्या ग्रहण के करने का निषेध नहीं है अथवा जो म्लेच्छ कन्याएँ चक्रवर्ती आदि से विवाही गई हैं उनके जो पुत्र उत्पन्न होते हैं वे भी दीक्षा ग्रहण कर सकते है।