प्रकीर्णक बिल
सातवीं पृथ्वी के ठीक मध्य भाग में ही नारकीयों के बिल है वहाँ के श्रेणीबद्ध नरक कहलाते हैं। श्रेणीबद्धों के मध्य में जो नरकवास है वे नरकेन्द्र कहलाते हैं और वहाँ के प्रकीर्णक नरक प्रस्तर कहलाते हैं। इन नरकों का विस्तार संख्यात योजन श्रेणीबद्ध बिलों का असंख्यात योजन और प्रकीर्णक बिलों का विस्तार उभयमिश्र है अर्थात् कुछ का संख्यात कुछ का असंख्यात योजन है। संख्यात योजन वाले नरक बिलों में नियम से संख्यात नारकी जीव व असंख्यात योजन वाले बिलों में असंख्यात ही नारकी जीव होते हैं। इन बिलों में स्वभावतः अंधकार से भरपूर कक्षक, कृपाण, क्षुरिका, खदिर की आग, अति तीक्ष्ण सुई और हाथियों की चिक्कार से अत्यन्त भयानक है। ये सब बिल अहोरात्र अंधकार से व्याप्त हैं। ये सभी जन्म भूमियाँ दुष्प्रेक्ष और महाभयानक हैं और भयंकर हैं। वहाँ झूठे मायामयी शाल्मली वृक्ष हैं जो महा दुखदायक हैं, वैतरणी नामा नदी है सो खारे जल से सम्पूर्ण भरी है। घिनावने रुधिर वाले महा दुर्गंधित गृह है जो कीड़ों और कृमि कुल से व्याप्त है। हजारों बिच्छु के काटने जैसी यहाँ वेदना होती है, इससे भी अधिक वेदना वहाँ की भूमि के स्पर्श मात्र से होती है।