पिण्डस्थ स्थान
निजात्मा का चिन्त्वन करना पिण्डस्थ ध्यान है अथवा श्वेत किरणों से प्रकाशित और आठ प्रातिहार्य से युक्त जो निज रूप अर्थात् अर्हन्त तुल्य आत्म स्वरूप का ध्यान किया जाता है, उसे पिण्डस्थ ध्यान कहते हैं। अथवा अपनी नाभि में, हाथ में, मस्तक में या हृदय में कमल की कल्पना करके उसमें स्थित सूर्य के समान तेजस्वी अर्हन्त के रूप का ध्यान करना पिण्डस्थ ध्यान है। पिण्डस्थ ध्यान में जो पाँच धारणाएँ हैं उनमें संयमी मुनि एकाग्र होकर संसार रूपी बंधन से मुक्त होता है। ये धारणाएँ पार्थिवी, आग्नेयी, मारूती ( श्वसना) वारूणी और तत्त्व रूपवती ऐसे यथाक्रम से होती हैं ।