परिहार प्रायश्चित
दोषयुक्त साधु को पक्ष, महीना आदि के लिए संघ से दूर रखकर त्याग करना परिहार नामक प्रायश्चित है। परिहार दो प्रकार का होता है – अनुपस्थापन और पारंचिक । उपरोक्त दो भेदों में से अनुपस्थापन भी निजगण और परगण के भेद से दो प्रकार का है। अनुप-स्थापन परिहार प्रायश्चित का जघन्य काल छह महीना और उत्कृष्ट काल बारह वर्ष है निजगणअनुपस्थापन में जिनको यह प्रायश्चित दिया जाता है वे मुनि अन्य मुनियों से बत्तीस दण्ड के अन्तर से बैठते या विहार करते हैं, प्रतिवन्दना से रहित होते हैं, गुरू के सिवाय अन्य सब साधुओं के साथ मौन रखते हैं तथा उपवास, आचमन एकासन आदि तप की साधना करते हैं ।परगण अनुपस्थापन में संघ के आचार्य ऐसे दोषयुक्त मुनि को दूसरे संघ के आचार्य के समीप भेजते हैं वे दूसरे संघ के आचार्य उन मुनि की आलोचना सुनकर प्रायश्चित दिए बिना ही किसी तीसरे आचार्य के समीप भेजते हैं इस तरह सात संघों में जाकर पुनः अपने आचार्य के पास आकर उपवास आदि प्रायश्चित ग्रहण करते हैं ।पारंचिक: परिहार नामक प्रायश्चित में पहले चार प्रकार मुनियों के संघ को इकट्ठा करते हैं फिर उस मुनि के दोषों को सभी के सामने प्रकट करके प्रायश्चित देकर उसे देश से निकाल देते हैं वह मुनि धर्म से रहित अन्य क्षेत्र में जाकर अपने प्रायश्चित को पूर्ण करता है।परिहार नामक प्रायश्चित उत्तम संहनन और दृढ़ चारित्र वाले साधु को ही विशेष दोष होने पर दिया जाता है।