द्वितीयोपशम सम्यक्त्व
उपशम श्रेणी चढ़ते हुए जीव को क्षयोपशम सम्यक्त्व से जो उपशमसम्यक्त्व होता है, उसका नाम द्वितीयोपशम सम्यक्त्व है दर्शनमोहनीय की तीन प्रकृतियों के उपशम के साथ-साथ चार अनन्तानुबन्धी कषायों की विसंयोजना अर्थात् अनन्तानुबन्धी का अप्रत्याख्यानाद्विरूप परिणमन होने से द्वितीयोपशम सम्यग्दर्शन होता है। द्वितीयोपशम सम्यग्दर्शन श्रेणी चढ़ने के सम्मुख जीव के सातवें गुण स्थान में उत्पन्न होता है एवं क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन के पश्चात् उत्पन्न होता है। श्रेणी का आरोहरण करके जब जीव ग्यारहवें गुण स्थान से नीचे गिरता है तब छठे, पाँचवे एवं चौथे गुण स्थान में पाया जाता है, इस अपेक्षा द्वितीयोपशम समयग्दर्शन चतुर्थ गुण स्थान से ग्यारहवें गुण स्थान पर्यन्त पाया जाता है। द्वितीयोपशम सम्यकत्व सहित उपशम श्रेणी पर चढ़ने वाले जीवों का अपूर्वकरण गुणस्थान के प्रथम भाग में मरण नहीं होता है, सभी गुणस्थानों में द्वितीयोपशम सम्यक्त्व के काल में मरण होने पर जीव नियम से देव गति में जाता है। द्वितीयोपशम सम्यक्त्व पर्याप्त मनुष्य एवं निवृत्यपर्याप्त वैमानिक देवों में ही होता है। नरकायु, तिर्यंचायु एवं मनुष्यायु इन तीनों में से किसी एक भी आयु का बंध हो जाने पर जीव कषायों के उपशम करने में समर्थ नहीं होता ।