दिग्व्रत
जीवन-पर्यंत दशों दिशाओं की सीमा करके ‘मैं इससे बाहर नहीं जाऊँगा – ऐसा संकल्प करना दिग्व्रत कहलाता है। मरण पर्यंत सूक्ष्म पापों की निवृत्ति के लिए दसों दिशाओं का परिमाण करके, इसके बाहर नहीं जाऊँगा। इस प्रकार संकल्प करना या निश्चय कर लेना सो दिग्नत है। दसों दिशाओं के त्याग में प्रसिद्ध – प्रसिद्ध, समुद्र, नदी, पर्वत, देश और योजन पर्यंत को मर्यादा कहते हैं । पूर्व, उत्तर, दक्षिण व पश्चिम दिशाओं में योजनों का प्रमाण करके उससे आगे दिशाओं और विदिशाओं में गमन नहीं करना, यह प्रथम दिग्व्रत नाम का गुणव्रत है। उर्ध्व व्यतिक्रम, अधोव्यतिक्रम और तिर्यक व्यतिक्रम, क्षेत्रवृद्धि और स्मृत्यन्तराधान ये दिग्व्रत के पाँच अतिचार हैं। अज्ञान और प्रमाद से ऊपर की, नीचे की और विदिशाओं की मर्यादा का उल्लंघन करना है, क्षेत्र की मर्यादा बढ़ा देना, और की हुई मर्यादाओं को भूल जाना ये पाँच दिग्व्रत के अतिचार माने गये हैं। इच्छा का परिमाण, क्षेत्र वास्तु आदि विषयक हैं, परन्तु ये दिशा विरमण उससे अन्य हैं। इस दिशा में लाभ होगा, अन्यत्र लाभ नहीं होगा और लाभ – अलाभ से जीवन-मरण की समस्या जुड़ी है, फिर भी स्वीकृत दिशा मर्यादा से आगे लाभ होने पर भी आगे लाभ होने पर भी गमन नहीं करना, दिग्व्रत है। दिशाओं का क्षेत्र वास्तु की तरह परिग्रह बुद्धि से अपने आधीन करके प्रमाण नहीं किया जाता इसलिए इन दोनों में भेद जानने योग्य है, उस दिग्व्रत में की गयी मर्यादा के बाहर त्रस और स्थावर हिंसा का त्याग होने से उतने अंश में महाव्रत होता है और मर्यादा के बाहर उसमें परिणाम न रहने के कारण लोभ का त्याग हो जाता है। प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ के मंद होने से अतिशय मंद रूप चारित्र मोहनीय परिणाम महाव्रत की कल्पना को उत्पन्न करता है अर्थात् महाव्रत सरीके प्रतीत होते हैं।