जल्प
पूर्वोक्त लक्षण सहित छल जाति और निग्रहस्थान से साधक का निषेध जिसमें किया जाए उसे जल्प कहते हैं । यद्यपि छल, जाति व निग्रहस्थान अपने पक्ष के साधक नहीं होते, तथापि दूसरे के पक्ष का खण्डन करके अपने पक्ष की रक्षा करते हैं, इसलिए नैयायिक लोग उसका प्रयोग करके भी दूसरे के साधन का निषेध करना न्याय मानते हैं इसी प्रयोग का नाम जल्प है। जिनमार्ग में क्योंकि अन्याय का प्रयोग अत्यन्त निषिद्ध है, इसलिए यहाँ जल्प का लक्षण नैयायिकों से भिन्न प्रकार का है समर्थवचन को जल्प कहते हैं । यहाँ छल, जाति व निग्रहस्थान के भेद रूप लक्षण इष्ट नहीं किया जाता है। विद्वान लोग जल्प को चार अंग वाला जानते है, वे चार अंग इस प्रकार है- वादी, प्रतिवादी, प्राश्निक और पारिषद् या सभासद् । इन्हें अवयव नहीं कर सकते क्योंकि अनुमान के वचन या वाक्य की भाँति यह वचन के अवयव नहीं होते। इस प्रकार जल्पस्वरूप का निरूपण करके अब उसका कथन करने का प्रयोजन दिखाते है। समस्त वस्तु को विषय करने वाले और समस्त एकान्तवादों का निराकरण करने वाले स्याद्वाद के द्वारा अन्य कथाओं से निवृत होकर बुद्धिमानों की बुद्धि एक विषय के प्रति अभिमुख होती है और न्याय में नियुक्त होकर तत्त्व का निर्णय करने के लिए वादी और प्रतिवादी दोनों के पक्ष में मध्यस्थता को धारण करती हुई शीघ्र ही अनुपम तत्त्व का निश्चय कर लेती है पक्ष का निर्णय जब तक नहीं होता तब मार्ग प्रभावना होती है यह जल्प का प्रयोजन व फल है ।