जम्बूद्वीप
यह मध्यलोक का प्रथम द्वीप है इनके उत्तरकुरू नामक स्थान में शाश्वत पृथिवीमयी अकृत्रिम और परिवार वृक्षों से युक्त जम्बू वृक्ष होने के कारण से इसे जम्बूद्वीप कहते हैं। इसका विष्कम्भ एक लाख योजन है इसके मध्य में सुमेरू पर्वत है इसमें भरतवर्ष, हैमवत वर्ष, हरिवर्ष, विदेहवर्ष, रम्यकवर्ष, हैरण्यवर्ष और ऐरावतवर्ष नामक सात क्षेत्र हैं इन क्षेत्रों को विभाजित करने वाले ओर पूर्व-पश्चिम लम्बे ऐसे हिमवान, महाहिमवान, निषध, नील, रूक्मी और शिखरी ये छह वर्षधर या कुलाचल पर्वत हैं इन पर्वतों के ऊपर पद्म, महापद्म तिगिं केसरी, महापुण्डरीक और पुण्डरीक ये तालाब हैं पहले पद्म नामक तालाब के मध्य में एक योजन का कमल है उसके चारों ओर अन्य और भी अनेकों कमल हैं इससे आगे वे तालाबों में और कमल हैं वे तालाब व कमल आगे-आगे दूने विस्तार वाले हैं इन कमलों पर क्रम से श्री, हृी, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी ये देवियाँ अपने-अपने सामानिक परिषद् आदि परिवार देवों के साथ रहती हैं। इन तालाबों में से निकलकर भरत आदि क्षेत्रों में से प्रत्येक में दो-दो करके क्रम से गंगा-सिन्धु, रोहित – रोहितास्या, हरित – हरिकान्ता, सीता- सीतोदा, नारी – नरकान्ता, सुवर्णकूला – रूप्यकूला, रक्ता- रक्तोदा नदियाँ बहती हैं। उपरोक्त युगलरूप दो- दो नदियों में से पहली – पहली नदी पूर्व समुद्र में गिरती है और बाद वाली नदी पश्चिम समुद्र में गिरती है। गंगासिन्धु आदि नदियों की चौदह-चौदह हजार परिवार नदियाँ हैं। यह द्वीप एक जगती (वेदिका) द्वारा वेष्टित है इसकी चारों दिशाओं में विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित नाम के चार द्वार हैं इनके अतिरिक्त यह द्वीप अनेकों वन, उपवनों, कुण्ड, गोपुर, द्वार, देवनगरी व पर्वत आदि के द्वारा शोभित है प्रत्येक पर्वत पर अनेकों कूट होते हैं प्रत्येक पर्वत व कूट नदी, कुण्ड तालाब आदि वेदियों कर के संयुक्त होते हैं प्रत्येक पर्वत कूट, कुण्ड, नदी, तालाब पर भवनवासी व्यन्तर देवों के पुर, भवन, आवास हैं व उन देवों के भवनों में जिन चैत्यालय होते हैं। जम्बूद्वीप के दक्षिण में प्रथम भरत क्षेत्र हैं जिसके उत्तर में हिमवान् पर्वत और तीन दिशाओं में लवणसागर है। इसके बीचों-बीच पूर्व–पश्चिम फैला हुआ एक विजयार्ध पर्वत है इसके पूर्व में गंगा और पश्चिम में सिन्धु नदी बहती है। इस प्रकार इन दो नदियों व विजयार्ध से विभक्त इस क्षेत्र के छह खंड हो जाते हैं। विजया की दक्षिण दिशा के तीन खण्डों में से मध्य का खंड आर्य खंड है और शेष पाँच म्लेच्छ खंड हैं आर्यखण्ड के मध्य 12X9 योजन विस्तृत अयोध्या नाम की प्रधान नगरी है जो चक्रवर्ती की राजधानी होती है। विजयार्ध के उत्तर वाले तीन खण्डों में मध्य वाले म्लेच्छ खण्ड के बीचों-बीच वृषभगिरि नामका गोल पर्वत है। जिस पर दिग्विजय के उपरान्त चक्रवर्ती अपना नाम अंकित करता है। इसके पश्चात् हिमवान पर्वत के उत्तर में और नदी हिमवान के दक्षिण में दूसरा हेमवत क्षेत्र है। इसके पश्चात् महाहिमवान के उत्तर और निषध पर्वत के दक्षिण में तीसरा हरिवर्ष क्षेत्र है इसके उपरान्त निषध पर्वत के उत्तर तथा नीलपर्वत के दक्षिण में विदेह क्षेत्र स्थित है इस क्षेत्र की दिशाओं का विभाग भरत क्षेत्र की अपेक्षा है सूर्योदय की अपेक्षा नहीं क्योंकि वहाँ इन दोनों दिशाओं में भी सूर्य का उदय व अस्त दिखाई देता है। इसके बहुमध्य भाग में सुमेरू पर्वत है सुमेरू पर्वत की दक्षिण में व निषध के उत्तर में देवकुरू है। मेरू के उत्तर व नील के दक्षिण में उत्तर कुरू है मेरू के पूर्व व पश्चिम भाग में पूर्व व अपर विदेह है जिसके अलग-अलग 16–16 खण्ड हैं इन्हें ही 32 विदेह कहते हैं। इसके पश्चात् नील के उत्तर और रूक्मि पर्वत के दक्षिण में पाँचवा रम्यक क्षेत्र है पुनः रूक्मि में उत्तर व शिखरी पर्वत के दक्षिण से छठा हेरण्यवत् क्षेत्र है सबसे अंत में शिखर के उत्तर में तीन ओर से लवणसागर से घिरा साँतवा ऐरावत क्षेत्र है।