छेदोपस्थापना चारित्र
1. प्रमादवश व्रतों में दोष लग जाने पर प्रायश्चित आदि द्वारा उसका शोधन करके पुनः व्रतों में स्थिर होना छेदोपस्थापना चारित्र है। 2. निर्विकल्प साम्य अवस्था में अधिक समय न रह पाने पर साधक विकल्प रूप अर्थात् भेद रूप मूलगुणों का आलम्बन लेता है यही छेदोपस्थापना–चारित्र है। सम्पूर्ण व्रतों को सामान्य की अपेक्षा एक मानकर एक व्रत को ग्रहण करने वाला होने से सामायिक चारित्र द्रव्यार्थिकनय रूप है और उसी एक व्रत के पाँच अथवा अनेक भेद धारण करने वाला होने से छेदोपस्थापना चारित्र पर्यायार्थिकनय रूप है इसलिए जो सामायिक शुद्धि संयत जीव है वे ही छेदोपस्थापना शुद्धि संयत होते हैं तथा जो छेदोपस्थापना शुद्धि संयत जीव है वे ही सामायिक शुद्धि संयत है। सावद्य पर्याय रूप पुरानी पर्याय को छेद कर अहिंसा आदि पाँच प्रकार के यम रूप धर्म में अपनी आत्मा को स्थापना करना छेदोपस्थापना संयम है। प्रमाद कृत अनर्थ प्रबंध का अर्थात् हिंसा आदि अव्रतों के अनुष्ठान का विलोप अर्थात सर्वथा त्याग करने पर जो भले प्रकार प्रतिक्रिया अर्थात् पुनः व्रतों का ग्रहण होता हैं, वह छेदोपस्थापना चारित्र है। अथवा विकल्पों की निवृत्ति का नाम छेदोपस्थापना चारित्र है। सम्पूर्ण व्रतों को सामान्य की अपेक्षा एक मानकर एक यम को ग्रहण करने वाला होने से सामायिक शुद्धि संयम द्रव्यार्थिक नय रूप है और उसी व्रत के पाँच अथवा अनेक के भेद करके धारणा करने वाला होने से छेदोपस्थापना शुद्धि संयम पर्यायार्थिक रूप है। जो सामायिक संयम जीव है वे ही छेदोपस्थापना संयत होते है तथा जो छेदोपस्थापना शुद्धि संयम जीव है वे सामायिक शुद्धि संयत होते है। पहले अविद्यमान पर पीछे से उत्पन्न हुई परिहार शुद्धि की अपेक्षा दोनों संयमों से इसका भेद है । अतः यह बात सिद्ध हो जाती है कि सामायिक और छेदोपस्थापना रूप शुद्धि को प्राप्त संयत जीव प्रमत्त संयत से लेकर अनिवृत्ति करण गुण स्थान तक होते है। उत्तम संहनन धारी जिन कल्पी मुनियों को सामायिक चारित्र होता है और हीन संहनन वाले स्थाविर कल्पी मुनियों को छेदोपस्थापना । अजितनाथ को आदि लेकर पारसनाथ पर्यंत 22 तीर्थंकर सामायिक संयम का उपदेश करते हैं, पर भगवान ऋषभदेव और महावीर स्वामी छेदोपस्थापना संयम का उपदेश करते हैं। आदि तीर्थ में शिष्य सरल स्वभावी होने से दुःखकर शुद्ध किए जा सकते हैं। इसी तरह अंत के तीर्थ में शिष्य कुटिल स्वभावी होने से दुःखकर पालन कर सकते हैं। जिस कारण पूर्व काल के शिष्य प्रगट रीति से योग्य-अयोग्य नहीं जानते। इसी कारण अंत तीर्थ में छेदोपस्थापना है। काल अनुसार चारित्र में हीनता आती है ।