चक्रवर्ती
जो छह खण्ड रूप भरत क्षेत्र का स्वामी हो और बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजाओं का तेजस्वी अधिपति हो वह चक्रवर्ती कहलाता है। सभी चक्रवर्ती वज्रवृषभ नाराज संहनन से सहित, सुवर्ण के समान वर्ण वाले उत्तम शरीर के धारी, सम्पूर्ण सुलक्षणों से युक्त और समचतुरस्र रूप शरीर संस्थान से युक्त होते हैं। चक्रवर्ती के चौदह रत्न, नौ निधियाँ और छयानवे हजार रानियाँ होती हैं। चक्र, छत्र, खड्ग, दण्ड, काकिणी (रत्न), मणि, चर्म(तम्बू), सेनापति, गृहपति, गज, अश्व, पुरोहित, स्थपति और युवती ये चौदह रत्न कहलाते हैं । काल, (ऋतु के अनुसार पुष्प फल आदि) महाकाल (भाजन) पाण्डु(धान्य) मानव (आयुध ), शंख (वादिज), पद्म(वस्त्र), नैसप्र(भवन), पिंगल (आरण), नाना रत्नये नौ निधियाँ कहलाती हैं। ये सभी निधियाँ अविनाशी होती हैं। निधिपाल नाम के देवों द्वारा सुरक्षित होती हैं और निरन्तर लोगों के उपकार में काम आती हैं। प्रत्येक निधि की एक-एक हजार यक्ष निरन्तर देख-रेख रखते हैं ये सभी नौ निधियाँ गृहपति (नौवें रत्न) के अधीन रहती हैं और सदा चक्रवर्ती के मनोरथ को पूर्ण करती है। दिव्यपुर (नगर), रत्न, निधि, चमू(सैन्य), भाजन, भोजन, शय्या, आसन, वाहन और नाट्य ये सभी चक्रवर्तियों के दशांग भोग होते हैं। आयुधशाला में चक्र रत्न की उत्पत्ति हो जाने पर चक्रवर्ती जिनेन्द्र पूजन पूर्वक दिग्विजय के लिए निकलते हैं और छह खण्डों को जीतकर अपनी राजधानी में लौट आता है। वर्तमान अवसर्पिणी काल में भरत क्षेत्र में भरत, सगर, मघवा, सनतकुमार, शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ, अरहनाथ, सुभौम, पद्म, हरिषेण, जयसेन, ब्रह्मदत्त- ये बारह चक्रवर्ती हुए। सामान्यतः चक्रवर्ती स्वर्ग या मोक्ष जाते हैं परन्तु इस काल में सुभौम और ब्रह्मदत्त ये दोनों चक्रवर्ती राज्यलिप्सा के कारण सातवें नरक गए । शेष चक्रवर्ती मोक्ष गए । एक मत के अनुसार सनतकुमार चक्रवर्ती स्वर्ग गए एवं हरिषेण व जयसेन चक्रवर्ती भी क्रमशः सर्वार्थसिद्धि और जयन्त नाम अनुत्तर विमानों में उत्पन्न हुए।