क्षेत्रोपसंपत
संयम, तप और उपशमादि गुण व व्रत रक्षा रूप शील तथा यम नियम इत्यादि जिस स्थान में रहने से बढ़े, उस क्षेत्र में रहना क्षेत्रोपसंपत है। अन्य संघ से आये हुए मुनियों का अंग मद्रन, प्रिय वचन रूप विनय करना आसन आदि पर बिठाना, इत्यादि उपचार करना गुरू के विराजने का स्थान पूछना, आगमन का रास्ता पूछना, संस्तर पुस्तक आदि उपकरणों को देना और उनके अनुकूल आचरण आदि करना वह विनयोपसंपत है। अपने संघ से आये हुए मुनि और अपने स्थान में रहने वाले मुनियों से आपस में आने-जाने के विषय में कुशल का पूछना, वह संयम, तप, ज्ञान, योग, गुणोकर सहित मुनिराजों के मार्गोपसंपत है। सुख-दुःख युक्त पुरुषों को वसतिका, आहार, औषधि आदिकर उपकार करना तथा मैं और मेरी वस्तुएँ आपकी हैं, ऐसा वचन कहना वह सुखदुःखोपसंपत है।