क्रिया
परिस्पंदन अर्थात् हलन चलन रूप अवस्था को क्रिया कहते हैं। अन्तरंग और बहिरंग निमित्त से द्रव्य में होने वाला परिस्पन्दात्मक परिणमन क्रिया है अथवा एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में गमन रूप हिलने वाली या चलाने वाली क्रिया है। परिस्पन्दात्मक क्रिया जीव और पुद्गल में ही होती है अन्य द्रव्यों में नहीं। क्रिया दो प्रकार की है- प्रायोगिकी और वैस्रसिकी। गाड़ी आदि की क्रिया प्रायोगिकी क्रिया है मेघ आदि की क्रिया वैस्रसिकी क्रिया है। श्रावक की पच्चीस क्रियाएँ हैं- सम्यक्त्व क्रिया, मिथ्यात्व क्रिया, प्रयोग क्रिया, समादान क्रिया, ईर्यापथ क्रिया, प्रादोषिकी क्रिया, कायिकी क्रिया, अधिकरणिकी क्रिया, पारितापिकी क्रिया, प्राणातिपातिकी क्रिया, दर्शन क्रिया, स्पर्शन क्रिया, प्रात्ययिकी क्रिया, समन्तानुपात क्रिया, अनाभोग क्रिया, स्वहस्त क्रिया, निसर्ग क्रिया, विदारण क्रिया, आज्ञा व्यापादिकी क्रिया, अनाकांक्ष क्रिया, प्रारम्भ क्रिया, पारिग्रहिकी क्रिया, माया क्रिया, मिथ्यादर्शन क्रिया, अप्रत्याख्यान क्रिया (देखें वह नाम) स्पर्श आदि रूप क्रोधादि और हिंसा करना आदि रूप ये क्रियाएँ आस्रव की कारण हैं।