काल
जो सभी द्रव्यों के परिणमन में सहकारी है, उसे काल द्रव्य कहते हैं जिस प्रकार कुम्हार के चाक के घूमने में उसके नीचे लगी हुई कील कारण है उसी प्रकार पदार्थों के परिणमन होने में कालद्रव्य सहकारी कारण है। काल दो प्रकार का है परमार्थ काल (निश्चय काल) और व्यवहार काल । वर्तना या 92 वस्तु के प्रतिसमय होने वाले स्वाभाविक परिणमन को निश्चय काल कहते हैं अथवा वर्तना लक्षण वाला कालाणु द्रव्य रूप निश्चय काल है लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर रत्नों की राशि के समान जो एक-एक रूप से स्थित है वे कालाणु है। जिसके द्वारा कर्म, भव, काय और आयु की स्थितियों की गणना की जाती है उसे ( व्यवहार ) काल कहते हैं अथवा समय, निमेष, कला, घड़ी, मास, ऋतु, अयन और वर्ष ऐसी जो काल की गणना है वह व्यवहार काल है। व्यवहार काल तीन प्रकार का है भूत वर्तमान और भविष्य । यद्यपि वर्तमान काल एक समय वाला है तो भी चूँकि अतीत और भविष्य काल अनन्त वाला है इसलिए काल को अनन्त समय वाला कहा गया है। सूर्य निमित्त व्यवहार काल मनुष्य क्षेत्र में ही चलता है क्योंकि मनुष्य लोक के ज्योतिर्विमान गतिशील होते हैं बाहर के ज्योतिर्विमान स्थिर हैं वहाँ के काल से ही तीनों लोक के प्राणियों की कर्म स्थिति, भवस्थिति और काल स्थिति आदि का ज्ञान होता है। दीक्षाकाल शिक्षाकाल, गणपोषणकाल, आत्मसंस्कार काल, सल्लेखना काल और उत्तमार्थ काल के भेद से काल के छह भेद हैं । वेदककाल और उपशमकाल तथा सोपक्रमकाल और अनुपक्रमकाल ऐसे भी कालों का निर्देश है (देखें वह वह नाम ) । जब कोई आसन्न – भव्य जीव भेदाभेद रत्नत्रयात्मक आचार्य को प्राप्त करके आत्मआराधना के अर्थ बाह्याभ्यंतर परिग्रह का त्याग कर दीक्षा ग्रहण करता है वह दीक्षा काल है। दीक्षा के अनन्तर निश्चय व्यवहार रत्नत्रय तथा परमात्मतत्व के परिज्ञान के लिए उसके प्रतिपादक अध्यात्मशास्त्र की शिक्षा ग्रहण करता है वह शिक्षा काल है। शिक्षा के पश्चात् निश्चय – व्यवहार मोक्षमार्ग में स्थित होकर उसके जिज्ञासु भव्यप्राणी गणों को परमात्मोपदेश से पोषण करता वह गणपोषण- काल है। गणपोषण के अनन्तर गण को छोड़कर जब निज परमात्मा में शुद्धसंस्कार करता है वह आत्मसंस्कार काल है। तदनन्तर उसी के लिए परमात्मपदार्थ में स्थित होकर रागादि विकल्पों के कृश करने रूप भाव सल्लेखना तथा उसी के अर्थ कायक्लेशादि के अनुष्ठान रूप द्रव्यसंल्लेखना है। इन दोनों का आचरण करता है वह सल्लेखना काल है। सल्लेखना के पश्चात् बहिर् द्रव्यों में इच्छा को निरोध है लक्षण जिसका ऐसे तपश्चरण रूप निश्चय चतुर्विधाराधना, जो कि तद्भव मोक्षगामी ऐसे चरमदेही अथवा उससे विपरीत जो भवान्तर से मोक्ष जाने के योग्य हैं, इन दोनों के होते हैं, वह उत्तमार्थ काल कहलाता है।