कारण विपर्यय
आत्मा के स्थित कोई मिथ्या दर्शन रूप परिणाम रूपादिक की उपलब्धि होने पर भी कारण विपर्यास, भेदाभेद विपर्यास और स्वरूप विपर्यास को उत्पन्न करता रहता है। विपरीत एक पक्ष का निश्चय करने वाले ज्ञान को विपयर्य कहते हैं। जैसे सीप में ‘यह चाँदी है’ इस प्रकार का ज्ञान होना। कोई (सांख्य ) मानते हैं कि रूपादि का एक कारण (प्रकृति) है जो अमूर्त और नित्य है। कोई (वैशेषिक) मानते हैं कि पृथ्वी आदि के परमाणु भिन्न-भिन्न जाति के हैं, तिनमें पृथ्वी परमाणु चार गुण वाले, जलपरमाणु तीन गुणवाले, अग्निपरमाणु दो गुण वाले, और वायुपरमाणु केवल एक स्पर्श गुण वाला होता है। ये परमाणु अपने-अपने समान जातीय कार्य को उत्पन्न करते हैं। कोई (बौद्ध) कहते हैं कि पृथ्वी आदि चार भूत हैं, और इन भूतों के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श ये भौतिक धर्म हैं। इन सबके समुदाय को एक रूप परमाणु या अष्टक कहते हैं। कोई कहते हैं कि पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु ये क्रम से काठिन्यादि, द्रतत्वादि, उष्णत्वादि और ईरणत्वादि गुणवाले अलग-अलग जाति के परमाणु होकर कार्य को उत्पन्न करते हैं।