कषाय
आत्मा में होने वाली क्रोधादि रूप कलुषता को कषाय कहते हैं । क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषाय प्रसिद्ध हैं। क्रोधादि चारों कषाय में से प्रत्येक की अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन रूप चार-चार अवस्थाएँ होती हैं, इस तरह इनके सोलह भेद हो जाते हैं। कषाय का उदय छह प्रकार का होता है- तीव्रतम तीव्रतर, तीव्र, मन्द, मन्दतर और मन्दतम। इन छह प्रकार के कषाय के उदय से उत्पन्न हुई परिपाटी क्रम से लेश्या भी छह हो जाती हैं। संसारी अवस्था में चारों कषायों का उदय निरन्तर बना रहता है परम कृष्ण लेश्या रूप तीव्र कषाय हो या परम शुक्ल लेश्या रूप मन्द कषाय हो चारों कषाय का उदय निरन्तर बना रहता है इसलिए तीव्र मन्द की अपेक्षा अनन्तानुबंधी आदि भेद नहीं हैं, ये भेद तो सम्यक्त्व और चारित्र का विनाश करने की अपेक्षा हैं। अनन्तानुबंधी, – 85 अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन क्रोध की शक्ति का उदाहरण शिला रेखा, पृथ्वी रेखा, धूलि रेखा और जल रेखा के रूप में दिया गया है। जैसेशिला, पृथ्वी, धूलि व जल पर खींची गयी रेखाएँ अधिक देर से, देर से जल्दी या बहुत जल्दी भी काल बीते बिना मिटती नहीं हैं इसी प्रकार उत्कृष्टादि शक्ति युक्त क्रोध से परिणत जीव भी उतने-उतने काल बीते बिना क्षमा- भाव को प्राप्त नहीं होता । अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन मान की शक्ति को शैल, अस्थि, काष्ठ और बेंत के समान माना है। जैसे- शैल, अस्थि, काष्ठ और बेंत बहुत या अल्प काल बीते बिना नमाये नहीं जा सकते, वैसे ही मान से परिणत जीव उतने- उतने काल बीते बिना विनय – भाव को प्राप्त नहीं होता । जैसे— वेणुमूल, मेड़े का सींग, गोमूत्र और खुरपा बहुत या अल्प काल बीते बिना अपनी-अपनी वक्रता छोड़कर सरलता प्राप्त नहीं करते ऐसे ही अन, अप्र, प्र. और संज्वलन माया से परिणत जीव उतने- उतने काल तक सरल परिणाम को प्रा नहीं होते। जैसे किरमिजी का रंग या दाग, पहिए का औंघन, कीचड़ और हल्दी का दाग बहुत या अल्प काल बीते बिना नहीं छूटते हैं वैसे ही अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन लोभ से परिणत जीव भी उतना–उतना काल बीते बिना लोभ को छोड़कर सन्तोष को प्राप्त नहीं होता है। क्रोध, मान, माया और लोभ ये चारों कषाय राग द्वेष रूप हैं। क्रोध और मान को द्वेष रूप माना गया है तथा माया और लोभ को राग रूप माना है। क्रोध द्वेष रूप है क्योंकि क्रोध करने से शरीर में सन्ताप होता है और जीव अपने माता-पिता तक को मार डालता है और मान द्वेष रूप है क्योंकि क्रोध के अनन्तर उत्पन्न होता है और क्रोध के समान ही अनर्थकारी है। माया को इसलिए राग रूप माना है क्योंकि उसका आलम्बन प्रिय वस्तु है और अपनी निष्पत्ति के अनन्तर सन्तोष उत्पन्न करती है लोभ को राग रूप कहा है और कथंचित् पेज्य भी माना है क्योंकि रत्नत्रय के साधन विषयक लोभ से स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति देखी जाती है शेष पदार्थ विषयक लोभ राग रूप तो है पर पेज्य नहीं है क्योंकि उससे पाप की उत्पत्ति देखी जाती है।