उपशम
आत्मा में कर्म की निजशक्ति का कारणवश प्रगट न होना उपशम है। जैसे- फिटकरी आदि के संबंध से जल में कीचड़ का उपशम हो जाता है आशय यह है कि जिस प्रकार जल में निर्मली के डालने से मैले पानी का मैल नीचे बैठ जाता है और जल स्वच्छ हो जाता है उसी प्रकार परिणामों की विशुद्धि से कर्मों की शक्ति का अनुभूत रहना अर्थात् प्रगट न होना उपशम है। उपशम दो प्रकार से होता है – प्रशस्त और अप्रशस्त । उदय, उदीरणा उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण, स्थिति काण्डक घात व अनुभाग काण्डक घात के बिना ही कर्मों के सत्ता में रहने को प्रशस्त उपशम कहते हैं। यह उपशम मात्र चारित्रमोह का होता है। अप्रशस्त उपशम के द्वारा जो कर्म प्रदेश उपशान्त होता है उसका अपकर्षण, उत्कर्षण व संक्रमण संभव है वह केवल उदयावली में प्रविष्ट कराने के लिए शक्य नहीं है अनन्तानुबंधी की चार और दर्शनमोह की तीन इन सात प्रकृतियों के अप्रशस्त उपशम से ही उपशम सम्यक्त्व होता है ।