उपयोग
1. जीव का जो भाव वस्तु के ग्रहण करने के लिए प्रवृत्त होता है उसे उपयोग कहते हैं अथवा जो अंतरंग और बहिरंग दोनों प्रकार के निमित्तों से होता है और चैतन्य का अन्वयी है अर्थात् चेतना को छोड़कर अन्यत्र नहीं रहता वह परिणाम उपयोग कहलाता है। 2. ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम विशेष को लब्धि कहते हैं तथा उसके निमित्त से होने वाले आत्मा के परिणाम को उपयोग कहते हैं प्रणिधान, उपयोग और परिणाम ये सब एकार्थवाची हैं। उपयोग दो प्रकार का हैज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग । ज्ञानोपयोग साकार या सविकल्प माना गया है इसके आठ भेद हैंमतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधि ज्ञान, मनःपर्यय ज्ञान, केवलज्ञान, मत्यज्ञान, श्रुताज्ञान और विभंगज्ञान | दर्शनोपयोग निराकार या निर्विकल्प होता है, इसके चार भेद हैं- चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन। उपयोग तीन प्रकार के कहे हैंशुभोपयोग, अशुभोपयोग और शुद्धोपयोग। उनमें से शुद्धोपयोग तो निरूपराग है, शुभोपयोग धर्मानुराग रूप है तथा अशुभोपयोग विषयानुराग रूप है। ज्ञान दर्शन रूप उपयोग की विवक्षा में उपयोग’ शब्द से विवक्षित पदार्थ को जानना ही लक्षण है, जिसका ऐसे पदार्थ के ग्रहण रूप व्यापार को लिया गया है और शुभ, अशुभ और शुद्ध इन तीनों उपयोगों की विवक्षा में उपयोग शब्द से शुभ अशुभ तथा शुद्ध भावना रूप अनुष्ठान जानना चाहिए।