उत्पाद व्यय ध्रौव्य
चेतन, अचेतन दोनों ही द्रव्य अपनी जाति को कभी नहीं छोड़ते फिर भी अन्तरंग और बहिरंग निमित्त के बस से प्रतिसमय जो नवीनावस्था की प्राप्ति होती है, उसे उत्पाद कहते है। प्रत्येक द्रव्य में आगम प्रमाण से अन्तर अगुरुलघु गुण स्वीकार किये गये हैं जिनका छः स्थान पतित हानि और वृद्धि के द्वारा वर्तन होता रहता है, यह स्वनिमित्तक उत्पाद है। धर्मादिक द्रव्य क्रम से अश्वादिकी गति, स्थिति और अवगाहन में कारण है। चूँकि इन गति आदिक में क्षण-क्षण में अन्तर पड़ता है, इसलिए इनके कारण भी भिन्न-भिन्न होने । चाहिए। इस प्रकार धर्मादिक द्रव्य में पर प्रत्यय की अपेक्षा उत्पाद और व्यय का व्यवहार किया जाता है। अनन्यत्व के द्वारा द्रव्य का सदुत्पाद निश्चित होता है। पर्यायों की अन्यता के द्वारा द्रव्य का असदुत्पाद निश्चित होता है। पूर्व अवस्था के त्याग को व्यय कहते हैं। जैसे- घट की उत्पत्ति होने पर पिण्डरूप आकार का त्याग हो जाता है ध्रौव्य अवस्थित है, जैसे- मिट्टी पिण्ड घटादि अवस्था में मिट्टी का अनवय बना रहता है ।