आसव अनुप्रेक्षा
आस्रव इस लोक और परलोक में दुखदायी है वह महानदी के प्रवाह के समान तीक्ष्ण है तथा राग-द्वेष- मोह रूप होने से बध-बंधन, अपयश और क्लेशादि को उत्पन्न करने वाला है। इस प्रकार आस्रव के दोषों का चिन्तवन करना आस्रवानुप्रेक्षा है। पूर्वोक्त आस्रव मिथ्यात्व आदि के भेद निश्चय में से जीव के नहीं होते हैं इसलिए निरन्तर ही आत्मा के द्रव्य और भावरूप दोनों प्रकार के आस्रवों से रहित चिन्तन करना चाहिए। पाँच इन्द्रिय, चार कषाय, पाँच अव्रत और पच्चीस क्रिया रूप आसव के द्वारों से प्रवेश हो जाने पर संसार समुद्र में पतन होता है और मुक्ति रूपी बेला पत्तन की प्राप्ति नहीं होती है। इस प्रकार आस्रव के दोनों रूपों का पुनः पुनः चिन्तवन करना सो आस्रव अनुप्रेक्षा जानना चाहिये ।