आबाघा
कर्म का बन्ध होने के पश्चात् वह तुरन्त ही उदय में नहीं आता बल्कि कुछ समय बाद परिपक्व होकर उदय में आता है अतः कर्मरूप होकर आया हुआ द्रव्य जब तक उदय या उदीरणा रूप न हो। सके तब तक के काल को आबाधा कहते हैं। आबाधा का विचार उदय और उदीरणा के भेद से दो प्रकार का होता है। उदय की अपेक्षा आयुकर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों की आबाधा एक कोड़ा कोड़ी सागर की स्थिति पर सौ वर्ष की होती है। जैसे जिस कर्म की उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर की बंधी है उसकी आबाधा सात हजार वर्ष की होगी अर्थात् इतने समय तक वे कर्म परमाणु उदय में नहीं आवेंगे। जिन कर्मों की स्थिति अन्तः कोडाकोड़ी प्रमाण बंधी है उनकी आबाधा अन्तर्मुहूर्त की होती है आयुकर्म की आबाधा एक करोड़ पूर्व के तृतीय भाग से लेकर असंक्षेपांग काल तक होती है। उदीरणा की अपेक्षा कर्मों की जघन्य आबाधा सर्वत्र एक आवली प्रमाण होती है अर्थात् बंधी हुई कर्म प्रकृति की एक अचलावली के बाद उदीरणा हो सकती है। इससे पूर्व उदीरणा नहीं हो सकती है। आयु कर्म की उदीरणा में यह ध्यान रखना चाहिए कि परभव सम्बन्धी आयु की उदीरणा नहीं होती मात्र वर्तमान आयु की हो सकती है।