आचार्य
1. जो सर्वकाल सम्बन्धी आचरण को जानता हो, योग्य आचरण करता हो ओर अन्य साधुओं को आचरण कराता हो वह आचार्य कहलाता है। 2. जो दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और वीर्य इन पाँच आचारों का स्वयं पालन करते हैं और दूसरे साधुओं से पालन कराते हैं उन्हें आचार्य कहते हैं। 3. जो संघ के संग्रह अर्थात् दीक्षा और निग्रह अर्थात् शिक्षा या प्रायश्चित देने में कुशल हैं, जो सूत्र अर्थात् परमागम के अर्थ में विशारद हैं जिनकी कीर्ति सब जगह फैल रही है, जो संघ के सारण अर्थात् रत्नत्रय में लगाना, वारण अर्थात् दोषों से रोकना और साधन अर्थात् व्रत-पालन के योग्य साधन जुटाना आदि कार्य में निरन्तर उद्यत हैं उन्हें आचार्य परमेष्ठी कहते हैं। आचार्य परमेष्ठी आचारवान, आधारवान, व्यवहारवान, प्रकारक, आयापाय- दृग, उत्पीड़क सुखकारी और अपरिस्रावी- ऐसे आठ गुणों से युक्त होते हैं। बारह तप, छह आवश्यक दस धर्म, पाँच आचार और तीन गुप्ति इस प्रकार छत्तीस मूलगुण आचार्य परमेष्ठी के होते हैं। प्रतिष्ठाचार्य, बालाचार्य, निर्यापकाचार्य, एलाचार्य आदि आचार्यों का कथन आगम में मिलता है देखें ( वह वह नाम) ।