अशुद्धोपयोग
शुद्ध निरुपराग है अशुद्ध सोपराग है। वह अशुद्धोपयोग शुभ और अशुभ दो प्रकार का है क्योंकि उपराग विशुद्धरूप और संक्लेश रूप दो प्रकार का है। मिथ्यादृष्टि, सासादन और मिश्र इन तीन गुणस्थानों में ऊपर मंदता से अशुभोपयोग रहता है इसके आगे असंयत सम्यग्दृष्टि श्रावक और प्रमत्तसंयत नामक जो तीन गुणस्थान हैं उनमें परम्परा से शुद्धोपयोग का साधक ऊपर तारतम्य से शुभोपयोग होता है तदनन्तर अप्रमत्तादि क्षीण कषाय तक छः गुणस्थानों में जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट भेद से विवक्षित एक देश शुद्ध नय रूप शुद्धोपयोग वर्तता है। अशुद्ध उपलब्धि मुख्य रूप से मिथ्यादृष्टि जीवों के होती है और सम्यग्दृष्टियों के गौण रूप से कभी-कभी होती है अथवा नहीं भी होती है ।