अवधिज्ञान
1. अवधि शब्द का अर्थ मर्यादा या सीमा है अर्थात् द्रव्य क्षेत्र आदि की मर्यादा से सीमित ज्ञान को अवधिज्ञान कहते हैं । 2. अव् पूर्वक धा धातु से अवधि शब्द बनता है ‘अव’ शब्द ‘अधः’ वाची है अतः जो नीचे के विषय को जानता है वह अवधिज्ञान कहलाता है। इस ज्ञान का धारक जीव इन्द्रिय, मन और प्रकाश आदि की सहायता के बिना ही अपने विषय क्षेत्र में स्थित रूपी पदार्थ को जानता है। भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय के भेद से अवधिज्ञान दो प्रकार है जो भव के निमित्त से होता है उसे भवप्रत्यय अवधिज्ञान कहते हैं। यह देव, नारकी और तीर्थंकरों के होता है तथा संयोग से होता है जो सम्यक्त्व से युक्त अणुव्रत या महाव्रत रूप गुणों के निमित्त से होता है उसे गुणप्रत्यय अवधिज्ञान कहते हैं। यह ज्ञान किन्हीं मनुष्य संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में भी संभव है सबके नहीं होता इसी को क्षयोपशम निमित्तक अवधिज्ञान कहते हैं। देशावधि, परमावधि और सर्वावधि के भेद से भी अवधिज्ञान तीन प्रकार का है। वर्धमान, हीयमान, अवस्थित, अनवस्थित, अनुगामी, अननुगामी, अप्रतिपाती, प्रतिपाती ये आठ भेद देशावधि में होते हैं। हीयमान, प्रतिपाती इन दो को छोड़कर शेष छह भेदपरमावधि में होते हैं। अवस्थित, अनुगामी, अननुगामी और अप्रतिपाती ये चार भेद सर्वावधि में होते हैं (देखें प्रत्येक नाम) कोई अवधि ज्ञान, जैसे सूर्य का प्रकाश उसके साथ जाता है, वैसे अपने स्वामी का अनुसरण करता है, उसे ‘अनुगामी’ कहते हैं। कोई अवधिज्ञान अनुसरण नहीं करता, किन्तु जैसे विमुख हुए पुरूष के प्रश्न का उत्तर स्वरूप दूसरा पुरूष जो वचन कहता है । वह वहीं छूट जाता है। विमुख पुरूष उसे ग्रहण नहीं करता है। वैसे ही यह अवधिज्ञान भी वहीं छूट जाता है, उसे अननुगामी कहते हैं। कोई अवधिज्ञान जंगल के निर्मन्थन से उत्पन्न हुई और सूखे पत्तों से उपचीयमान ईंधन के समुदाय से वृद्धि को प्राप्त हुई अग्नि के समान सम्यक् दर्शनादि गुणों की विशुद्धिरूप परिणामों के सान्निधानवश जितने परिमाणों में उत्पन्न होता है, उससे (आगे) असंख्यात लोक जानने की योग्यता होने तक बढ़ता जाता है, वह वर्धमान है। कोई अवधि ज्ञान परिमित उपादान संतति वाली अग्नि शिखा के समान सम्यग्दर्शनादि गुणों की हानि से संक्लेश हुए परिणामों के बढ़ने से जितने परिमाण में उत्पन्न होता है उसे (लेकर) मात्र अंगुल के असंख्यातवे भाग प्रमाण जानने की योग्यता होने तक घटता चला जाता है, उसे हीयमान कहते हैं। कोई अवधिज्ञान सम्यग्दर्शनादि गुणों के समान रूप से स्थिर रहने के कारण जितने परिमाण में उत्पन्न होता है उतना ही बना रहता है। पर्याय के नाश होने तक या केवलज्ञान के उत्पन्न होने तक शरीर में स्थित मस्सा आदि चिन्होंवत न घटता है न बढ़ता है उसे अवस्थित कहते हैं। कोई अवधिज्ञान वायु के वेग से प्रेरित जल की तरंगों के समान सम्यग्दर्शनादि गुणों की कभी वृद्धि कभी हानि होने से जितने परिमाण में उत्पन्न होता है उससे बढ़ता है जहाँ तक उसे बढ़ना चाहिए, और घटता है जहाँ तक उसे घटना चाहिए। उसे ‘अनवस्थित कहते हैं। जो अवधिज्ञान उत्पन्न होकर निर्मूल विनाश को प्राप्त होता है वह सप्रतिपाती अवधिज्ञान है जो अवधिज्ञान उत्पन्न होकर केवलज्ञान के उत्पन्न होने पर ही विनष्ट होता है अन्यथा विनष्ट नहीं होता है वह अप्रतिपाती अवधिज्ञान है। इस प्रकार अवधिज्ञान 8 प्रकार का है।