अरति परीषह जय
जो संयत मुनि इन्द्रिय के इष्ट विषयों के प्रति निरुत्सुक है जो गीत, नृत्य, वादित्र आदि से रहित शून्य घर, मन्दिर, वृक्ष की कोटर, शिलातल आदि में स्वाध्याय, ध्यान और भावना में लीन हैं। पहले देखे हुए, सुने हुए या अनुभव किए हुए विषय-भोगों के स्मरण, विषय- भोग संबन्धी कथा सुनने में और काम-वासना में रुचि नहीं रखते और जो प्राणियों के प्रति सदा दयाभाव से हैं युक्त उनके यह अरति परीषह जय है ।