अप्राप्तिसमा
हेतु की साध्य के साथ जो प्राप्ति करके प्रत्यवस्थान दिया जाता है वह प्राप्तिसमा जाति है और अप्राप्ति करके जो फिर प्रत्यवस्थान दिया जाता है वह अप्राप्तिसमा जाति है। जैसे कि “पर्वतो वह्निमान् धूमात्” इत्यादि समीचीन हेतु का वादी द्वारा कथन किये जा चुकने पर प्रतिवादी दोष उठाते है कि यह हेतु क्या साध्य को प्राप्त होकर साध्य की सिद्धि करावेगा? क्या अन्य प्रकार से भी साध्य और हेतु दोनों एक ही स्थान पर प्राप्त हो रहे हैं तो गाय के बांये और दांये सींग के समान भला कोई उसमें से एक को हेतुपना और दूसरे को साध्यपना कैसे युक्त हो सकता है। अप्राप्तिसमा का उदाहरण यों है कि वादी का हेतु यदि साध्य को नहीं प्राप्त होकर साध्य का साधक होगा तब तो सभी हेतु प्रकृत साध्य के साधन बन बैठेंगे अथवा वह प्रकृत हेतु अकेला ही सभी साध्य को साध्य डालेगा।