अप्रतिष्ठित
जो यह मूलक आदि प्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति प्रसिद्ध है वे भी अवस्था में प्रथम समय से लगाकर अन्तर्मुहूर्त काल पर्यन्त से अप्रतिष्ठित प्रत्येक होती है। पीछे निगोदिया जीवों के द्वारा आश्रित किए जाने पर प्रतिष्ठित प्रत्येक होती है। जिसकी नसे नहीं दिखती, बंधन और गांठ नहीं दिखती, जिनके टुकड़े समान हो जाते हैं, और भंगों में परस्पर तंतु न लगे रहे, तथा छेदन करने पर भी जिनकी पुनः वृद्धि हो जाए, उसको सप्रतिष्ठित प्रत्येक और इसके विपरीत को अप्रतिष्ठित प्रत्येक कहते है। जिन वनस्पतियों के मूल, कन्द त्वचा, प्रवाल, शुद्ध शाखा या स्कन्ध की छाल मोटी हो उसको सप्रतिष्ठित प्रत्येक कहते हैं। एक स्कन्ध में अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति जीवों के शरीर यथा संभव असंख्यात व संख्यात् भी होते है जितने वहाँ प्रत्येक शरीर हैं उतने ही वहाँ प्रत्येक वनस्पति जीव जानने चाहिए। क्योंकि एक – एक शरीर के प्रति एक एक जीव होने का नियम है।