अन्तर
विरहकाल को अन्तर कहते हैं। जितने काल तक अवस्था विशेष से जुदा होकर उसकी प्राप्ति नहीं होती उस काल को अन्तर कहते हैं। गुणस्थान परिवर्तन द्वारा या गति परिवर्तन के द्वारा अन्तर काल निकाला जाता है। जैसे- एक मिथ्यादृष्टि जीव, सम्यग्मिथ्यात्व, अविरत सम्यक्त्व, संयमासंयम और संयम से बहुत बार परिवर्तित होता हुआ परिणामों के निमित्त से सम्यक्त्व को प्राप्त हुआ और वहाँ पर सर्व लघु अन्तर्मुहूर्त काल तक सम्यक्त्व के साथ रहकर मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ। इस प्रकार सर्व जघन्य अन्तर्मुहूर्त प्रमाण मिथ्यात्व गुणस्थान का अन्तर प्राप्त हो गया।